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________________ पंचम अध्ययन : पिण्डेषणा] [193 अस जीवों के वध से निष्पन्न वस्तुओं का उपयोग तो दूर रहा, वे ऐसी वस्तु का उपयोग भी नहीं करते जिसमें पहले, तत्काल, पीछे या लेते समय किसी भी एकेन्द्रिय जीव की विराधना हो। इसलिए यहाँ जो अस्थि का अर्थ हड्डी करके तथा कांटे का अर्थ मछली का कांटा करके इस पाठ का मांस-मत्स्यपरक अर्थ करते हैं वह कथमपि संगत नहीं है / निघण्टुकोष आदि के अनुसार इन शब्दों का अर्थ वनस्पतिपरक होता है और यही प्रकरणसंगत है। यथा-बहु-प्राट्ठियं पोग्गलं-जिनमें बहुत-से बीज या गुठलियाँ हों, ऐसे फलों का पुद्गल (भीतर का गूदा)। निघण्टु में 'सीताफल' का नाम 'बहुबीजक' भी है / कोष में भी फल के बीज के अर्थ में 'अस्थि' शब्द का प्रयोग हुआ है / अणिमिसं वा बहुकंटयंबहुत कांटों वाला अनन्नास फल, अथवा अनिमिष का अर्थ अनन्नास और बहुकंटयं का अर्थ-बहुत कांटों वाला कटहल / कटहल के छिलके में सर्वत्र कांटे ही कांटे होते हैं। दोनों बहुकण्टक हैं / अनन्नास में कांटे कम और तीखे होते हैं, जबकि कटहल के छिलके में बहुत कांटे होते हैं / अच्छियं : अत्थियं : दो रूप : दो अर्थ-(१) आक्षिक-अक्षिक एक प्रकार का रंजक फल होता है। पाक्षिकी एक बेल भी होती है, जिसका फल कफ-पित्तनाशक, खट्टा, एवं वातवर्द्धक होता है / (2) अस्थिक-वृत्ति के अनुसार बहुत बीजक वनस्पति के प्रकरण में, भगवती और प्रज्ञापना में अस्थिक शब्द प्रयुक्त हुआ है। इसे हिन्दी में अगस्तिया, अगथिया, हथिया या हदगा कहते हैं / इसके फूल और फली होते हैं। तेंदुयं : तिन्दुक : विशेषार्थ तेन्दू का अर्थ टीबरू होता है / यह फल पकने पर नींबू के समान पीले रंग का होता है। पूर्वी बंगाल, बर्मा आदि के जंगलों में पाया है। सिबलि : दो अर्थ-(१) देशी नाममाला के अनुसार शाल्मलि (सेमल), (2) सिबलि-सींगा (फली) अथवा वल्ल (वाल) आदि की फली / 78. (क) दशवकालिक (प्राचारमणिमंजूषा टीका) भा. 1, पृ. 465-466 (ख) दशवं. (संतबालजी), पृ. 56 (ग) दशवै. (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. 212 (घ) “सीताफलं गण्डमात्रं वैदेहीवल्लभं तथा।। कृष्णबीजं चाग्रिमाख्यमातृप्यं बहुबीजकम् // " -निघण्टुकोष (ङ) 'फलबीजे पुमानष्ठिः ' / -शब्दकल्पद्रुम (च) अणिमिस त्रि. (अनिमेष)-पलक न मारा हुआ और वनस्पतिविशेष / -प्रर्धमागधी कोष, प्रथम भाग, पृ. 181 (छ) 'अत्थिक'-अस्थिकवृक्षफलम् / (ज) शालिग्रामनिघण्टु भू., पृ. 523 / (झ) 'अच्छियं / ' –जिन. चूर्णि, पृ. 184 (ज) पित्तश्लेष्मघ्नमम्लं च वातलं चाक्षिकीफलम् / --चरकसूत्र 27 / 160 (ट) तिदुयं-टिंबरुयं ।-जि. चू., पृ. 184 (ठ) नालंदा विशाल शब्दसागर (ड) सामरी-सिंबलिए,-सामरी शाल्मलिः / ---देशीनाममाला घा२३ (ढ) “सिलि -सिंगा।' जि. च., पृ. 184 (ण) “शाल्मलि वा बल्लादिफलिम / " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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