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________________ 192] [वशवकालिकसूत्र हैं / ऐसी गंदी और सड़ी गली चीजों का सेवन करने से हिंसा के अतिरिक्त साधु-साध्वी को अनेक बीमारियां होने की सम्भावना भी है / 'सत्तु-चण्णाई' आदि पदों का अर्थ ---सत्तुचुण्णाई--सत्तू और चून, सत्तू / कोलचुण्णाई-बेर का चूर्ण अथवा सत्तू / सक्कुलि—(१) तिलपपड़ी, (2) सुश्रुत के अनुसार-शष्कुली-कचौरी / पसदं(१) प्रसह्य-अनेक दिनों तक रखी हुई होने से प्रकट या प्रकट (खुले) में रखे हुए, (2) प्रशठबहुत दिनों से रखे हुए होने से सड़े हुए, (3) प्रसृत-बहुत दिनों तक न बिकने के कारण यों ही पड़े हुए / 77 बहु-उज्झितधर्मा फल आदि के ग्रहण का निषेध 186. बहु-अट्ठियं पोग्गलं 0 अणिमिसं वा बहुकंटयं / अच्छियं+ तेंदुयं बिल्लं उच्छुखंडं च सिबलि // 104 // 187. अप्पे सिया भोयणजाए बहु उजियधम्मए / * देतियं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं // 105 / / [186-187] बहुत अस्थियों (बीजों या गुठलियों) वाला पुद्गल (फल), बहुत-से कांटों वाला अनिमिष (अनन्नास) फल, पास्थिक (सेहजन की फली), तेन्दु, बेल, (बिल्बफल), गन्ने के टुकड़े (गंडेरियाँ) और सेमली की फली (अथवा फली); जिनमें खाद्य (खाने का) अंश कम हो और त्याज्य अंश बहुत अधिक हो, (अर्थात् फेंकना अधिक पड़े) (--उन सब फल आदि को) देती हुई स्त्री को मुनि स्पष्ट निषेध कर दे कि इस प्रकार का (फल आदि अाहार) मेरे लिए ग्रहण करना यो नहीं है / / 104-105 / / विवेचन-खाद्यांश कम, त्याज्यांश अधिक वाले फलादि अग्राह्य- प्रस्तुत दो सूत्रगाथानों में बहुत कांटों वाले, बहुत-से बीजों या गुठलियों वाले तथा अन्य फलियों आदि अग्राह्य पदार्थों का उल्लेख किया गया है, जिनमें खाने का भाग कम और फेंकने का भाग अधिक हो। बहुअदिव्यं आदि पदों का अर्थ-जैन साधु-साध्वियों के हिंसा का तीन करण तीन योग से त्याग होता है / वे ऐसी वस्तुओं का उपयोग कतई नहीं करते हैं, जो त्रस जीवों के वध से निष्पन्न हो। 77. (क) दशवं. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. 210 (ख) “सत्तुया जवातिधाणाविकारो, 'चुण्णाई' अण्णे पिटुविसेसा।" -अ. चू , पृ. 117 'सक्तुचूर्णान्'--सक्तून् / —हारि. टीका., पत्र 176 (ग) 'कोलाणि-बदराणि, ते सिं चुण्णो–कोलचुण्याणि / ' –जिन. चूणि., पृ. 184 _ 'कोलचूर्णान-बदरसक्त न / ' -हारि. वृत्ति, पत्र 176 (घ) 'सक्कुली तिलपप्पडिया' -अग. चूणि, पृ. 117 (ङ) सुश्रुत 267 (च) 'प्रसह्य'-अनेकदिवसस्थापनेन प्रकटम् / —हा. वृ., पत्र 176 'पसढमिति पच्चक्खातं तदिवसं विक्कतं व गतं / अ. च., पृ. 118 'तं पसह नाम जं ब्रहदेवसियं दिणे-दिणे विक्कायते तं। -जि. च., पृ. 184 पाठान्तर- पुग्गलं / + अस्थियं / * बहु-उज्झण-धम्मिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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