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________________ 188 [दशवकालिकसूत्र आहारग्रहण-निषेधक हैं, तत्पश्चात् 20 गाथाएँ अग्निकाय से संस्पृष्ट आहारग्रहण का निषेध प्रतिपादित करने वाली हैं। पुष्पादि से उन्मिश्र : व्याख्या-उन्मिश्र, एषणा का सप्तम दोष है। साधु के लिए देय अचित्त आहार में न देने योग्य सचित्त वनस्पति आदि का मिश्रण करके या सहज ही मिश्रित हो वैसा दिया जाने वाला आहार उन्मिश्र दोषयुक्त कहलाता है / जैसे—पानक में गुलाब और जाई आदि के फूल मिले हुए हों, धानी के साथ सचित्त गेहूँ आदि के बीज मिले हों अथवा पानक में दाडिम आदि के बीज मिले हों / खाद्य-स्वाद्य भी पुष्प आदि वनस्पति से मिश्रित हो सकते हैं। इन सबसे मिश्रित पाहार सचित्त-संस्पृष्ट होने से पूर्ण अहिंसक के लिए ग्राह्य नहीं है। उत्तिग एवं पनक : अर्थ और दोष का कारण-उत्तिंग का अर्थ है---कीडीनगर और पनक का अर्थ है--काई या लीलण-फलण / इन दोनों पर रखा या किसी भी प्रकार का प्रा लेता है तो उसके निमित्त से कीटिकानगरस्थ जीवों तथा काई के जीवों की विराधना होती है / इसलिए इन पर रखा हुआ पाहार ग्रहण करने का निषेध किया गया है / निक्षिप्त दोष : व्याख्या एवं प्रकार--किसी भी प्रकार के सजीव पृथ्वीकायादि पर रखा हुया एवं साधु को दिया जाने वाला पाहारादि पदार्थ निक्षिप्त दोषयुक्त होता है / निक्षिप्त दो प्रकार का होता है-अनन्तरनिक्षिप्त और परम्परनिक्षिप्त / सचित्त जल में नवनीत आदि का रखना अनन्तरनिक्षिप्त है और चींटी आदि के लग जाने के डर से जलपात्र में घृत, दधि आदि का बर्तन रखना परम्परनिक्षिप्त है / जहाँ जल, अग्नि एवं वनस्पति आदि के आहार का सीधा सम्बन्ध हो, वहाँ वह अनन्तरनिक्षिप्त और जहाँ आहार के बर्तन के साथ जल आदि का सम्बन्ध एक या दूसरे प्रकार से होता हो, वहाँ वह पाहार परम्परनिक्षिप्त दोषयुक्त है। निक्षिप्त' ग्रहणषणा दोष है।' संघट्टित आदि दोष : अग्निकाय-विराधनाकारक-(१) संघट्रिया-साधु को भिक्षा द्र, उतने समय में रोटी जल न जाए, ऐसा सोच कर तवे पर से रोटी को उलट कर या ईंधन को हाथ, पैर आदि से छुकर आहार देना संघट्टित दोष है / (2) उस्सक्किया-भिक्षा दू, इतने में चूल्हा बुझ न जाए, इस विचार से उसमें ईंधन डाल कर आहार देना उत्ष्वस्क्य दोष है। प्रोसक्किया-भिक्षा दू, इतने में कोई वस्तु जल न जाए, इस विचार से चूल्हे में से इंधन निकाल कर आहार देना अवध्वस्क्य दोष है / (4) उज्जालिया-नये सिरे से झटपट चूल्हा सुलगाकर ठंडे आहार को गर्म करके देना उज्ज्वलित दोष है, (5) पज्जालिया-बार-बार चूल्हे को प्रज्वलित कर आहार बना कर देना प्रज्वलित दोष है / (6) निव्वाविया भिक्षा दू, इतने में कोई चीज उफन न जाए, इस डर से चूल्हा बुझा कर आहार देना, निर्वापित दोष है / (7) अग्नि पर रखे हुए एवं अधिक भरे हुए पात्र में से आहार बाहर निकल न जाए, इस भय से बाहर निकालकर पाहार देना उत्सिचन दोष है। 69. (क) जिनदास. चूणि, पृ. 182, (ख) अगस्त्य. चूणि, पृ. 114 70. (क) उत्तिगो कीडियानगरं / पणो उल्ली। –अ. चू., पृ. 114 (ख) दशवै. (प्रा. आत्मा.) पृ. 201 71. निक्खित्तं अणंतरं परम्परं च। --प्र. चू., पृ. 124 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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