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________________ 182] [दशकालिकसूत्र [150-151] -यदि श्रमण या श्रमणी यह जान ले कि यह प्रशन, पानक, खाद्य या स्वाद्य श्रमणों के निमित्त बनाया गया है तो वह भक्त-पान संयमियों के लिए अकल्पनीय होता है। (इसलिए) भिक्षु आहार देती हुई, उस स्त्री को निषेध कर दे कि इस प्रकार का आहार मेरे लिए ग्राह्य नहीं है / / 68-66 // विवेचन-दानार्थ-प्रकृत आदि शब्दों का विशेषार्थ-प्रस्तुत सूत्र गाथाओं (144 से 151] में दानार्थ, पुण्यार्थ, बनीपकार्थ और श्रमणार्थ तैयार किये गए आहार को ग्रहण करने का निषेध किया गया है। दानार्थ-प्रकृत-आहार---विदेश-प्रवास से लौट कर आने पर या किसी पर्व-विशेष या पुत्रजन्म आदि अवसरों पर बधाई देने आने वालों को प्रसादभाव से देने के लिए आहार तैयार करवाना दानार्थ-प्रकृत आहार कहलाता है। अथवा चिरकाल से विदेश-प्रवास से आकर साधुवाद पाने के लिए किसी श्रेष्ठी द्वारा समस्त पाखण्डियों को दान देने के लिए तैयार कराया गया भोजन भी दानार्थ प्रकृत है।६४ पुण्यार्थ-प्रकृत--पर्वतिथि के दिन धन्यवाद या प्रशंसा पाने की इच्छा रखे बिना जो आहार केवल पुण्यलाभ की दृष्टि से बनाया जाता है, दाता जिसका स्वयं उपभोग नहीं करता, वह पुण्यार्थ-प्रकृत है। वनीपकार्थ-प्रकृत--जो दूसरों को अपनी दीनता-दरिद्रता दिखा कर, अनुकल बोल कर दाता की खुशामद या प्रशंसा करके पाता है, वह वनीपक कहलाता है, वह दीनतापूर्वक गिड़गिड़ाकर भीख मांगने वाला याचक है। अथवा जो अपने-अपने विषय की अति प्रशंसा करके माहात्म्य बतला कर आशीर्वाद देकर बदले में दान पाता है, वह वनीपक कहलाता है। इस दृष्टि से अतिथि-वनीपक, कृपण-वनीपक, ब्राह्मणवनीपक, श्ववनीपक और श्रमणवनीपक ये 5 प्रकार के वनीपक स्थानांगसूत्र में बताए हैं। जैसे-अतिथिभक्त के सामने अतिथिदान की, ब्राह्मणभक्त के सामने व्राह्मणदान की प्रशंसा करके जो दान पाता है, वह क्रमश: अतिथिवनीपक, ब्राह्मणवनीपक आदि कहलाता है / ऐसे बनीपकों के लिए तैयार किया गया भोजन वनीपकार्थ-प्रकृत है। श्रमणार्थ-प्रकृत-जो पाहार सब प्रकार के श्रमणों को दान देने के लिए तैयार किया गया हो, वह श्रमणार्थ-प्रकृत है। पांच प्रकार के श्रमण बताए गए हैं—(१) निर्ग्रन्थ, (2) सौगत, (3) तापस (जटाधारी), (4) गैरिक और आजीवक (गोशालकमतानुयायी)। साधारणतया इन 64. (क) दाणटप्पगडं-कोति ईसरो पवासागतो साधुसद्दे ण सव्वस्स मागतस्स सक्का रणनिमित्तं दाणं देति / -अ. चू., पृ. 113 (ख) पुण्यार्थ प्रकृतं नाम साधुवादानंगीकरणेन यत्पुण्यार्थ कृतमिति / –हारि. वृत्ति, पत्र 173 (ग) परेषामात्मदुःस्थत्व-दर्शनेनानुकलभाषणतो यल्लभ्यते द्रव्यं सा वनी प्रतीता तां पिवति, पातीति वेति बनीपः, स एव वनीपको याचकः। --स्था., 52200 वृत्ति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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