________________ पंचम अध्ययन : पिण्डषणा] [179 कालमासवती गर्मिणी से प्राहार लेने में दोष-जिसके गर्भ को नौवां महीना या प्रसूतिमास चल रहा हो, वह कालमासवती (पूरे महीने वाली) गर्भवती साधु को भिक्षानिमित्त उठ-बैठ करेगी तो गर्भ स्खलित होने की संभावना है। ऐसी कालमासवती के हाथ से भिक्षा लेना 'दायक' दोष है 55 विशेष यह है कि जिनकल्पी मुनि कालमासिनी का विचार न करके गर्भ के प्रारंभ से ही गर्भवती के हाथ से आहार ग्रहण नहीं करते / स्तनपायी बालक को रोते छोड़कर भिक्षादात्री से आहार लेने में दोष यह है कि बालक को कठोरभूमि पर रखने एवं कठोर हाथों से ग्रहण करने से उसमें अस्थिरता आती है, वह माता के बिना भयभीत हो जाता है, इससे परितापदोष होता है। उस बालक को बिल्ली आदि कोई जानवर उठा कर ले जा सकता है / 60 इन तीनों परिस्थितियों में महिला से आहार-पानी लेने का निषेध हिंसा की संभावना के कारण है। दूसरे को जरा-सा भी कष्ट में डाल कर अपना पोषण करना संयमीजनों को इष्ट नहीं है। अत: अहिंसक की दृष्टि से ऐसी दात्री से आहार को ग्रहण करने का निषेध है। किन्तु इन तीनों परिस्थितियों में भी महिला साधु-साध्वी को आहार देना चाहे तो उससे निम्नोक्त रूप से लिया जा सकता है-(१) गर्भवती महिला के उपभोग के बाद बचा हा विशिष्ट आहार दे तो, (2) कालमासवती गर्भवती महिला बैठी हो तो बैठी-बैठी या खडी हो तो खडी-खडी ही पाहार दे तो. (3) स्तनपायी बालक कोरा स्तनपायी न हो, अन्य आहार भी लेने लगा हो और उसे अलग छोड़ने पर रोता न हो और उसकी माता पाहार दे तो। रुदन करते हुए शिशु को छोड़ कर उसकी माता आहार दे तो नहीं लिया जा सकता।' 59. (क) प्रतिकालमासे 'कालमासिणी'। -अग. च., पृ. 111 (ख) कालमासवती-गर्भाधानानवममासवती। -हारि. बु., पत्र 171 (ग) दसवेयालियं (मुनि नथमल जी) पृ. 233 60. (क) तस्स निविखप्पमाणस्स खरेहिं हत्थेहि धेप्पमाणस्स य अपरित्तत्तणेण परितावणादोसो, मज्जाराइ व अवधरेज्जा / —जिन. चूणि, पृ. 180 (ख) एत्थ दोसा-सुकुमालसरीरस्स करेहिं हत्थेहि सयणीए वा पीडा, मज्जाराती वा खाणाबहरणं करेज्जा। -अग. चूणि, पृ. 112 61. (क) "भुत्तसेस पडिच्छए।” —दसवेयालियसूत्तं (मूलपाठ टिप्पण) पृ. 24-25 (ख) इह च स्थविरकल्पिकानाम् निषीदनोत्थानाभ्यां यथावस्थितया दीयमानं कल्पिकम् / जिनकल्पिकानां त्वापन्नसत्त्वया प्रथमदिवसादारभ्य सर्वथा दीयमानं अकल्पिकमेवेति सम्प्रदायः / -हारि. वृत्ति., पत्र 171 (ग) “तत्थ गच्छवासी जति थरणजीवी णिक्खित्तो तो ण गेहंति, रोयतु वा वा मा, अह अन्न पि श्राहारेति, तो जति न रोवइ तो गेण्हंति, ग्रह अपियंतप्रो णिक्खित्तो थणजीवी रोवइ तो ण मेण्हंति / " —जिनदासचणि, पृ. 180 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org