________________ [177 पंचम अध्ययन : पिण्डषणा] विवेचन-प्रस्तुत सूत्रगाथाद्वय (134-135) में से पहली गाथा में 'अनिसृष्ट' नामक 15 वें उद्गमदोषयुक्त भिक्षा ग्रहण का निषेध है, और अगली गाथा में निसृष्ट (एषणीय) भक्तपान लेने का विधान है। अनिसृष्ट : अर्थ और दोष का कारण-अनिसृष्ट का अर्थ है-अननुज्ञात / साधु को प्रत्येक वस्तु उसके स्वामी की अनुमति-अनुज्ञा से लेनी चाहिए, अन्यथा अदत्तादान दोष लगता है। अनुमति के बिना लेने पर उड्डाह (अपवाद) एवं निग्रह की भी संभावना है / 55 __ दोण्हं तु भुजमाणाणं : अर्थ और फलितार्थ—'भुज' धातु दो अर्थों में प्रयुक्त होती है—(१) पालन और (2) अभ्यवहरण (भोजन), इस दृष्टि से यहाँ इस पंक्ति का अर्थ होगा- -एक ही वस्तू के दो स्वामी हों अथवा एक ही भोजन को दो व्यक्ति खानेवाले हों। उनमें से एक व्यक्ति देने में सहमत न हो तो वह आहार अनिसृष्ट दोषयुक्त कहलाता है, वह साधु के लिए ग्राह्य नहीं है / छंदं तु पडिलेहए: फलितार्थ-छंद का अर्थ है-अभिप्राय / वस्तु के दूसरे स्वामी के चेहरे के हावभाव, नेत्र और मुख की चेष्टा आदि से मुनि उसका अभिप्राय जाने / यदि दूसरे स्वामी को कोई आपत्ति न हो तो उसकी स्पष्ट अनुमति के बिना भी मुनि एक स्वामी द्वारा प्रदत्त आहार ग्रहण कर सकता है। और यदि दूसरे स्वामी को अपना आहार मुनि को देना अभीष्ट न हो, वह प्रकट में आपत्ति करता हो या नहीं, तो ऐसी स्थिति में मुनि एक स्वामी द्वारा प्रदत्त आहार भी नहीं ले सकता। गर्भवती एवं स्तनपायिनी नारी से भोजन लेने का निषेध-विधान 136. गुध्विणोए उवन्नत्थं विविहं पाणभोयणं / भुज्जमाणं विवज्जेज्जा, भुत्तसेसं पडिच्छए // 54 // 137. सिया य समणढाए, गुग्विणी कालमासिणी। उट्ठिया वा निसीएज्जा, निसन्ना वा पुणुटुए // 55 // 138. तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं / बेतियं पडिमाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं // 56 // 55. दसवेयालियं (मुनि नथमल जी) पृ. 232 56. (क) द्वयोर्भुजतोः—पालनां कुर्वतोः एकस्य वस्तुनः स्वामिनोरित्यर्थः / " एवं भुजानयोः अभ्यवहारायो द्यतयोरपि योजनीयः / यतो भुजिः पालनेऽभ्यवहारे च वर्तते। -हारि. वृत्ति, पत्र 171 तद्दीयमानं नेच्छेदुत्सर्गतः, अपितु अभिप्रायं द्वितीयस्य प्रत्युपेक्षेत नेत्रवक्त्रादिविकार:, किमस्येद मिष्टं दीयमानं न वेति ? इष्टं चेद् गृण्हो यान्न चेन्नैवेति / -हारि. वृत्ति., पत्र 171 57. "अागारिंगित-चेद्वागुणे हिं, भासाविसेस-करणेहिं / मह-णयण-विकारेहि य, घेप्पति अंतग्गतो भावो / " अ, चू., पृ. 110 "णाताभिप्पातस्स जदि इलैं तो घेप्पति, ण अण्णहा / " -वही, पृ. 110 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org