________________ 176] दिशवकालिकसूत्र पश्चात्कर्म दोष की सम्भावनावश असंसृष्ट अग्राह्य और संसृष्ट ग्राह्य-साधु को आहार देने के लिए लाते समय लेप लगने वाली बस्तु से हाथ आदि अलिप्त-असंसृष्ट हों तो वह आहार लिया जा सकता है, किन्तु साधु को भिक्षा देने के निमित्त से जो हाथ, बर्तन आदि लिप्त हुए हों तो गृहस्थ द्वारा उन्हें बाद में सचित्त जल से धोने के कारण पश्चात्कर्म दोष होने की सम्भावना रहती है। अतः असंसष्ट, हाथ और पात्र आदि से भिक्षा लेने का निषेध है / यदि भिक्षा देते समय लिप्त हुए हाथ, कुडछी, पात्र आदि से स्वयं भोजन करे या दूसरे को परोसे तो पश्चात्कर्मदोष नहीं लगता, ऐसी स्थिति में अर्थात् जहाँ हाथ, कुडछी, पात्र आदि में साधु के निमित्त से पश्चात्कर्म की संभावना न हो, वहाँ यह निषेध नहीं है / वह अाहार ग्राह्य है। इसीलिए अगली गाथा में कहा गया है --भिक्षा देते समय लेप्यवस्तु से लिप्त (संसृष्ट) हाथ प्रादि (जिनमें पश्चात्कर्म की सभावना न हो) सेबाहार ग्रहण किया जा सकता है, यदि वह ऐषणीय हो अर्थात्-उद्गमादि दोषों से रहित हो। यह इन दोनों गाथाओं का तात्पर्य है / 54 अनिसृष्ट आहार-ग्रहणनिषेध और निसृष्ट ग्रहणविधान 134. दोण्हं तु भुजमाणाणं एगो तत्थ निमंतए / दिज्जमाणं न इच्छेन्जा, छंदं से पडिलेहए / / 52 / / 135. दोण्हं तु भुजमाखाणं, दो वि तत्थ निमंतए / दिज्जमाणपडिच्छेज्जा, जं तत्थेसणियं भवे // 53 / / 6134] - (जहाँ) दो स्वामी या उपभोक्ता (भोजन करने वाले) हों और उनमें से एक निमंत्रित करे (दूसरा नहीं), तो मुनि उस दिये जाने वाले आहार को ग्रहण करने की इच्छा न करे / वह दूसरे के अभिप्राय को देखे ! (यदि उसे देना अप्रिय लगता हो तो न ले और प्रिय लगता हो तो (एषणीय आहार) ले ले) / / 52 / / [१३५]—दो स्वामी अथवा उपभोक्ता (भोजन करने वाले) हों और दोनों ही (आहार लेने के लिये) निमंत्रण करें, तो मुनि उस दिये जाने वाले पाहार को, यदि वह एषणोय हो तो ग्रहण कर ले / / 53 / / (ग) ग्रामपिटु प्रामग्रो लोट्रो। सो अप्पिधणो पोरुमीए परिणमति / बहइधणो प्रारतो चेत्र / -अ. चणि., पृ. 110 (घ) कुक्कुसा चाउलत्तया। -अ. चू., पृ. 110 / (ङ) उक्कुट्टो णाम सचित्तवणस्सति-पतंकुरफला णि वा उदुक्खले छुभति, तेहिं हत्थो लित्तो, एस उक्कट्रो हत्थो भण्णति / सचित्तवणस्सती--चुण्णो मोक्कुट्ठो भण्णति ।--नि. भा. गा. 148 च., नि. 4139 / चु. (च) उक्कुटुं धूरो सुरालोट्टो, तिल-गोधूम-जबपिट्ट वा। अंबिलिया-पीलुपणियातीणि वा उक्खनछुण्णादि / ----. चू., पृ. 110 54. माकिर पच्छाकम्मं होज्ज असंसद गंतयो वज्जं / करमत्तेहिं तु तम्हा, संस? हिं भवे गहणं / / -नि. भा. गा. 1852 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org