________________ पंचम अध्ययन : पिण्डषणा] [173 वह कल्प्य भी प्रकल्प्य बन जाता है। उमास्वाति के अनुसार-"जो कार्य ज्ञान, शील और तप का उपग्रहकारक और दोषों का निग्रहकर्ता हो, वह निश्चयदृष्टि से कल्प्य है और शेष अकल्प्य / " आगमसाहित्य में उत्सर्ग-अपवाद को दृष्टिगत रख कर महान् आचार्यों ने बताया है कि किसी विशेष परिस्थिति में कल्प्य और अकल्प्य का निर्णय देश, काल, पात्र (व्यक्ति), अवस्था, उपयोग और परिणाम-विशुद्धि का सम्यक् समीक्षण करके ही करना चाहिए, अन्यथा नहीं। निष्कर्ष यह है कि बहुश्रुत आगमधर के अभाव में साधु-साध्वियों को शास्त्रोक्त विधि-निषेधों का अनुसरण करना ही श्रेयस्कर है। प्रस्तुत गाथा (सू. 106) में यह बताया है कि भिक्षाग्रहण करते समय अपनी विचक्षण बुद्धि से कल्प्यअकल्प्य का विचार करके अकल्प्य को छोड़ कर कल्प्य (एषणीय, शास्त्रविहित एवं भिक्षासम्बन्धी 42 दोषरहित) आहार ही ग्रहण करना चाहिए।४३ देतियं : देती हुई : तात्पर्य-प्राय: महिलाएँ ही भिक्षा दिया करती हैं, इसलिए यहाँ 'दाता' के रूप में स्त्री का निर्देश किया गया है। उपलक्षण से 'देता हुआ', इस प्रकार पुरुष का निर्देश भी समझ लेना चाहिए।४४ परिसाडिज्ज भोयणे-याहार लाते समय दाता भूमि पर उसे गिराता या बिखेरता हुआ लाकर साधु को दे तो वह अग्राह्य है, यह 'एषणा' का दसवां 'दित' नामक दोष है। यह इसलिए दोष माना गया है कि यदि गर्म पाहार दाता के शरीर पर पड़ जाए तो वह जल सकता है तथा आहार की बूदें नीचे गिरने पर चींटी आदि जीवों की विराधना संभव है।४५ __ संमहमाणीअसंजमकरि नच्चा : अभिप्राय प्राणी या वनस्पति आदि को कुचलती या रौंदतो हुई दात्री को शास्त्रकार असंयमकरी मानते हैं। असंयम का अर्थ यहाँ 'संयम का सर्वथा 43. (क) पाइयसहमहण्णवो (ख) जिनदासचूणि, पृ. 177 (ग) कल्पिक-एषणीयं, अकल्पिक-अनपणीयम् / —हारि. वृत्ति, पत्र. 168 (ग) अकप्पिस बायालीसाए अण्णतरेण एसणादोसेण दुळं, कपित सेस सणादोसपरिसुद्ध। -अगस्त्यचूणि. पृ. 107 "यज्ज्ञानशीलतपसामुपग्रहं निग्रहं च दोषाणाम् / कल्पयति निश्चये यत्तत्कल्प्यमकल्प्यमवशेषम् // " --प्र. प्र. 143 (च) यत्पुनरुपघातकरं सम्यक्त्व-ज्ञान-शील-योगानाम् / तत्कल्प्यमप्यकल्प्य प्रवचनकूत्साकर यच्च / / 144 / / देशं कालं क्षेत्र पुरुषमवस्थामूपयोगशुद्धपरिणामान् / प्रसमीक्ष्य भवति कल्प्यं, नकान्तात्कल्प्यते कल्प्यम् / / / / 146 // -वही, 144-146 44. 'ददतीम्'"स्त्येव प्रायो भिक्षां ददातीति स्त्रीग्रहणम् / ' -हारि. वृत्ति, पत्र 169 45. (क) दशवै. (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.) पृ. 174 / (ख) उसिणरस छड्डणे देतो व डझे.ज्ज कायदाहो वा। सीय पटणंमि काया पडिए महबिद-पाहरणं ।।-पिण्डनियुक्ति 628 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org