________________ 172] [दशवकालिकसूत्र [127] सचित्त सफेद मिट्टी (श्वेतिका) से सने हुए हाथ, कड़छी या बर्तन से आहार देती हुई स्त्री से मुनि निषेध कर दे कि ऐसा आहार मेरे लिए ग्रहण करने योग्य नहीं है / / 45 / / [128] सचित्त सौराष्ट्रिका (फिटकरी) से युक्त हाथ से, कड़छी से या बर्तन से आहार देती हुई स्त्री से साधु निषेध कर दे कि ऐसा आहार मेरे लिए ग्राह्य नहीं है / / 46 / / [126] तत्काल पीसे हुए आटे (पिष्ट) से सने हुए हाथ, कड़छी या बर्तन से आहार देती हुई महिला से साधु स्पष्ट कह दे कि ऐसा आहार मैं नहीं ले सकता / / 47 / / [130] तत्काल कटे हुए धान्य के भूसे या छिलके से युक्त हाथ, कड़छी या बर्तन से पाहार देती हुई स्त्री से साधु निषेध कर दे कि मैं इस प्रकार का आहार नहीं ले सकता / / 4 / / [131] चाकू से ताजे बनाये हुए फलों के कोमल टुकड़ों से युक्त हाथ से, कड़छी से या वर्तन से ग्राहार देती हुई दात्री से साधु कह दे कि मैं इस प्रकार का आहार ग्रहण नहीं कर सकता / / 46 / / [132] जहाँ (जिस पाहार के लेने पर) पश्चात्कर्म (साधु को प्राहार देने के बाद तुरंत सचित्त जल से हाथ धोने) की संभावना हो, वहाँ असंसृष्ट (भक्त-पान से अलिप्त) हाथ, कड़छी अथवा बर्तन से दिये जाने वाले आहार को ग्रहण करने की इच्छा न करे / / 5 / / [133] (किन्तु) संसष्ट (भक्त-पान से लिप्त) हाथ से, कड़छी से या बर्तन से (साधु को) दिया जाने वाला आहार यदि एषणीय हो तो मुनि लेवें / / 51 / / विवेचन-किस विधि से दिया जाने वाला आहार ग्रहण करे ? ---इससे पूर्व गाथाओं में इस विधि का उल्लेख था कि भिक्षार्थी मुनि स्वस्थान से निकल कर गृहस्थ के घर में कैसे प्रवेश करे, वहाँ कैसे और किस स्थान में खड़ा रहे ? अब गाथासूत्र 106 से 133 तक में यह वर्णन किया गया है कि किस विधि, कैसे दाता के द्वारा दिया जाने वाला आहार ग्रहण न करे, या ग्रहण करे ? भिक्षादान में चार बात विचारणीय--भिक्षा लेने-देने में विधि, द्रव्य, दाता पोर पात्र इन चारों की विशुद्धि का विचार किया जाता है / प्रस्तुत में द्रव्य शुद्धि और दातृशुद्धि दोनों का विचार किया गया है। अकप्पियं, कम्पियं : व्याख्या-पिण्डेषणाप्रकरण में यत्र-तत्र ये दोनों शब्द व्यवहृत हुए हैं। ये पारिभाषिक शब्द हैं। कल्प का प्रकरणसमन अर्थ है-नीति, आचार, मर्यादा. विधि अथवा सामाचारी / अकल्प का अर्थ इसके विरुद्ध है अर्थात्-कल्पनिषिद्ध या कल्प से असम्मत / इस दृष्टि से अकप्पियं (अकल्पिक या अकल्पनीय) एवं 'कप्पियं' (कल्पिक, कल्प्य या कल्पनीय) का अर्थ होता है जो नीति, प्राचार, मर्यादा, विधि या सामाचारी शास्त्र द्वारा निषिद्ध, अननुमत, या विरुद्ध हो वह अकल्पिक और जो शास्त्र द्वारा विहित, अनुमत या सम्मत हो, वह कल्पिक है। हरिभद्रसूरि ने कल्पिक का अर्थ---एषणीय और अकल्पिक का अर्थ--अनेषणीय किया है। यहाँ पूर्वोक्त नीति आदि से युक्त, ग्राह्य, करणीय अथवा योग्य या शक्य को भी कल्प्य और इससे विपरीत को अकल्प्य बताया गया है / वाचक उमास्वाति की दृष्टि से कोई भी कार्य एकान्तरूप से कल्प्य या प्रकल्प्य नहीं होता, जो कल्प्य कार्य सम्यक्त्व-हानि, ज्ञानादि के नाश और प्रवचन (शासन) निन्दा का कारण बनता हो, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org