________________ पंचम अध्ययन : पिण्डषणा [167 भी साधु को उसके लिए बहस, अपशब्द-प्रयोग अथवा दीनवचन-प्रयोग न करते हुए चुपचाप बिना कुछ कहे, वहाँ से निकल जाना चाहिए / भिक्षार्थ प्रविष्ट साधु की खड़े रहने की भूमि--सीमा : विधि-निषेध-पाहार के लिए प्रवेश करने के बाद साधु गृहस्थ के चौके में कहाँ तक जाए, इसके विधि-निषेध-नियम प्रस्तुत गाथा (24) में दिये गए हैं-अतिभूमि में न जाए-गृहस्थ के द्वारा भोजनगृह में भिक्षाचरों के प्रवेश की वजित या अननुज्ञात भूमि अतिभूमि कहलाती है / सभी गृहस्थों की एक-सी मर्यादा नहीं होती, इसलिए साधु-साध्वी को यह विवेक स्वयं करना होगा कि किस गृहस्थ के यहाँ रसोडे में कितनी दूर तक जाने की भूमिसीमा है ? यह निर्णय साधु-साध्वी को तद्देश प्रसिद्ध देशाचार, शिष्टाचार, कुलाचार, जातिसंस्कार, ऐश्वर्य, भद्रक-प्रान्तक आदि गृहस्थों की अपेक्षा से करना चाहिए। जहाँ तक दूसरे भिक्षा चर जाते हैं, तथा जहाँ तक जाने में गृहस्थ को अप्रीति न हो, वहाँ तक की भूमि को कुलभूमि कहते हैं / अतः साधु-साध्वी इस प्रकार कुलभूमि का निर्णय करके वहाँ तक ही जाएँ / अन्यथा चौके के अत्यन्त निकट चले जाने पर उनके प्रति अप्रीति या शंका उत्पन्न हो सकती है। मितभूमि में भी कहाँ खड़ा हो, कहाँ नहीं?—गृहस्थ द्वारा अनुज्ञात या अवजित मितभूमि में जाकर साधु कैसे और कहाँ खड़ा रहे, कहाँ नहीं? इसका विवेक प्रस्तुत दो गाथाओं (24-25) में दिया गया है। मितभूमि में भी साधु जहाँ-तहाँ खड़ा न होकर इस बात का उपयोग लगाए कि वह कहाँ खड़ा हो, कहाँ नहीं ? वह उस भूभाग का सर्वेक्षण करे कि जहाँ खड़े रहने से संयम में विघात न हो, और शासन की हीलना न हो / 41 चार प्रकार के भूभाग में खड़े रहने का निषेध-साधु को मर्यादित मितभूमि में भी चार भूभागों (स्थानों) में खड़ा नहीं रहना चाहिए-(१) सिणाणस्स संलोग, (2) वच्चस्स संलोग, (3) दग-मट्टिय-आयाणं, और (4) बीयाणि-हरियाणि य / चारों की व्याख्या-'संलोक' शब्द का सम्बन्ध स्नान और वर्चस् दोनों के साथ है / वर्चस् का अर्थ है--मलमूत्रविसर्जन-शौच क्रिया / तात्पर्य यह है कि जहाँ खड़ा होने से मुनि को स्नान करती हुई या मल-मूत्र विसर्जन करती हुई महिला या 39. (क) ...."दिण्णे परियंदणेण, अदिण्णे रोसवयणे हिं'"एवमादीहि अजंपणसीलो अयंपिरो एवंविधो णिय? ज्जा। --अगस्त्य चूर्णि, पृ. 106 (ख) तथा निवर्तत गृहादलब्धेऽपि सति अजल्पन्-दीनवचन मनुच्चारयन्निति। --हारि. वृत्ति, पत्र 168 40. (क) 'भिक्खयरभूमि-अतिक्कणमतिभूमी त ण गच्छेज्जा / ' -अग. चू., पृ. 106 (ख) अतिभूमि न गच्छेद्-अननुज्ञातां गृहस्थैः / यत्रान्ये भिक्षाचरा न यान्तीत्यर्थः / -हा. वृत्ति, पत्र 168 (ग) किं पुण भूमिपरिमाणं ? "त विभव-देसायार-भद्दग-पंतगादीहिं, 'कुलस्स भूमि णाऊण' पुवपरि कमणेणं अण्णे वा भिक्खायरा जावतियं भूमिमुपसरति एवं विण्णात" -अगस्त्यचूर्णि, पृ. 106 (घ) मितां भूमि-तरनुज्ञातां पराक्रमेत (प्रविशेत्) यत्रैषामप्रीतिर्नोपजायेत, इति सूत्रार्थः / -हा. टी., पृ. 168 (ङ) मित भूमि परक्कमे बुद्धीए संपेहित सव्वदोससुद्धतावतियं पविसेज्जा।' -अ. चू., पृ. 106 41. 'तत्थेति ताए मिताए भूमोए उत्रयोगो कायवो पंडिएण, कत्थ ठातियवं, कत्थ न वेत्ति / तत्थ ठातियवं जत्थ इमाई न दीसंति / ' —जि. च.,पृ. 177 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org