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________________ पंचम अध्ययन : पिण्डषणा] [159 में जाने से मुनि को भी शंकास्पद व्यक्ति समझ कर यंत्रणा दी जाए या कष्ट भोगना पड़े। अत: ऐसे शंकास्थानों का दूर से ही त्याग कर देना चाहिए। ___ आलोयं आदि शब्दों के अर्थ-आलोयं—घर के गवाक्ष, झरोखा या खिड़की, जहाँ से बाहरी प्रदेश को देखा जा सके। थिग्गलं दारं-घर का वह दरवाजा, जो किसी कारण से पुन: चिना गया हो। संधि : दो अर्थ-(१) दो घर के बीच का अन्तर (गली) अथवा (2) सेंध (दीवार की ढंकी हुई सूराख), दगभवणाणि : अनेक अर्थ-(१) जलगृह, (2) सार्वजनिक स्नानगृह (या स्नानमण्डप सर्वसाधारण के स्नान के लिए), (3) जलमंचिका (जहाँ से स्त्रियाँ जल भरकर ले जाती हैं) राजा, गृहपति (इभ्य श्रेष्ठी आदि) प्रादि प्रसिद्ध हैं / 22 संडिभं-जहाँ बच्चे विविध खेल खेल रहे हों। दित्तं गोणं-मतवाला सांड / 23 कुत्ता, प्रसूता गौ, उन्मत्त सांड, हाथी, घोड़ा, बालकों का क्रीड़ास्थल, कलह और युद्ध, इनका दूर से वर्जन साधु-साध्वी को इसलिए करना चाहिए कि इनके पास जाने से ये काट सकते हैं, सींग मार सकते हैं, उछाल सकते हैं / कलह (वाचिक संघर्ष) और युद्ध (शस्त्रादि से संघर्ष) चल रहा हो, ऐसे स्थानों में जाने से विपक्षो व्यक्ति मन में साधु-साध्वी को गुप्तचर या विपक्ष समर्थक आदि समझ कर यंत्रणा दे सकते हैं अथवा कलहादि न सह सकने से बीच में बोल सकता है। रहस्सारक्खियाणं : दो रूप : दो अर्थ-(१) रहस्यं प्रारक्षकाणां-नगर के रक्षक कोतवाल या दण्डनायक आदि के गुप्त मंत्रणा करने के स्थान को। (2) रहस्यारक्षिकानां-अगस्त्य चूणि के अनुसार राजा के अन्तःपुर के प्रामात्य आदि / यहाँ रहस्य शब्द को रन्नो, गिहिवईणं, 'प्रारक्खियाणं' इन तीनों पदों से सम्बन्धित मान कर अर्थ किया है-राजा के, गृहपतियों के और प्रारक्षिकों के 22. (क) मालोगो-गवक्खगो। -प्र. चू., पृ. 103 (ख) थिम्गलं नाम जं घरस्स दारं पूब्वमासी तं पडिपूरियं / -जि. चू , पृ. 174 (ग) 'संधी जमलघराणं अन्तरं।' -प्र. च., पृ. 103 (घ) संधी खत्त पडिढक्किययं / -जि. च., 174 (ङ) पाणियकम्मत, पाणियमंचिका, ण्हाणमंडपादि दगभवणाणि / -अग. च., प. 103 (च) दमभवणाणि-पाणियघराणि ण्हाणगिहाणि वा / (छ) शंकास्थानमेतदवलोकादि / -हारि. वृत्ति, पृ. 166 23. (क) संडिम्भं-बालक्रीडास्थानम् / -हा. टी., प. 166 (ख) संडिब्भं नाम बालरूवाणि रमंति धणू हिं। --जि. चू., पृ. 171-172 24. (क) अपरिवज्जणे दोसो—साणो खाएज्जा, गावो (नवप्पसूत्रा) मारेज्जा, गोणो मारेज्जा, एवं हयगया णवि मारजादिदोसा, भवंति / बालरूवाणि पुण पाएसु पडियाणि भायण भिदिज्जा, कट्टाकठिवि करेज्जा। धणुविप्पमुक्केण व कंडेण आहणिज्जा / तारिसं अणहियासंतो भणिज्जा, एवमादिदोसा।। (ख) श्व-सूतगोप्रभतिभ्य यात्मविराधना डिम्भस्थाने वन्दनाद्यागमन-पतन-भण्डन-प्रलुण्ठनादिना संयम विराधना, सर्वत्र चात्मपात्रभेदादिनोभयविराधना। -हारि. टीका, पत्र 166 (ग) कलहे अगहियासो कि चि हणेज्ज भणिज्ज वा, एवमादिदोसा। अ. च., 102 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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