________________ पंचम अध्ययन : पिण्डेषणा [157 वेससामंते : विश्लेषण-(१) जहाँ विषयार्थी लोग प्रविष्ट होते हैं, वह देश कहलाता है, (2) अथवा वेश यानी नीच स्त्रियों का समवाय या वेश्याश्रय / अथवा वेश-वेश्यागृह सामन्तेसमीप / 17 विसोत्तिया : विस्रोतसिका: व्याख्या-कूड़ाकर्कट इकट्ठा होने से जैसे जल के आने का स्रोतप्रवाह-रुक जाता है, उसका प्रवाह दूसरी ओर हो जाता है, खेती सूख जाती है, वैसे ही वेश्याओं के संसर्ग से, उनके कटाक्ष-रूप, लावण्यादि देखने से मोह, अज्ञान प्रादि का कूड़ा दिमाग में जम जाता है। बुद्धि का प्रवाह अब्रह्मचर्य की ओर मुड़ जाता है। इससे ज्ञान दर्शन चारित्र का स्रोत रुक जाता है, संयम की कृषि सूख जाती है / 6 यह भावविस्रोतसिका है। अणाययणे : अनायतन-(१) सावध, (2) अशुद्धि-स्थान–कुस्थान और (3) कुशीलसंसर्ग व्रतों को पीड़ा : कैसे ?–ऐसे कुसंसर्ग से ब्रह्मचर्य प्रधान सभी व्रतों की पीड़ा (विराधना) हो जाती है / कोई श्रमण साधुवेष को न छोड़े, फिर भी जब उसका मन कामभोगों में आसक्त हो जाता है तो ब्रह्मचर्यत्रत की विराधना हो ही जाती है। चित्त की चंचलता के कारण वह ईर्या या एषणा की शुद्धि नहीं कर पाता, इससे अहिंसावत की क्षति हो जाती है। वह जब कामनियों की ओर ताकताक कर देखता है तो लोग पूछते हैं, तब वह असत्य बोल कर दोष छिपाता है, यह सत्यव्रत की विराधना है, स्त्रीसंग करना भगवदाज्ञा का भंग है, इस प्रकार वह अचौर्यव्रत का भी भंग करता है और सुन्दर स्त्रियों के प्रति ममत्व के कारण अपरिग्रहव्रत की भी विराधना होती है। इस प्रकार एक ब्रह्मचर्यव्रत को विराधना से सभी व्रत पीड़ित हो जाते हैं / 20 17. (क) 'वेससामंते'–पविसंति जत्थ विसयस्थिणो ति वेसा, पविसति वा जणमणेसु वेसो। -अ. चू., पृ. 101 (ख) 'स पुणणीच इत्थिसमवाओ।' -अ.चु., पृ. 101 (ग) वेश्याऽऽश्रयः पूरं वेश: / -अ. चिंता., 4-69 (घ) न चरेद वेश्यासामन्ते-न गच्छेद् गणिकागहसमीपे। -हारि, व., पत्र 165 (ङ) 'सामंते समीपे' वि किमुत तम्मि चेव। -अ. चू., पृ. 101 18. "तासि वेसाणं 'भावविपेक्खियं णहसियादी पासंतस्स गाणदसणचरित्ताणं आगमो निरु भति, तो संजमसस्सं सुक्खइ, एसा भावविसोत्तिया। -जि. चू., पृ. 171 (क) सावज्जमणायतणं असोहिठाणं कसीलसंसम्गा / एगट्ठा होति पदा एते विवरीय आययणा // —ोधनियुक्ति 764 (ख) दशव. (संतबालजी), पृ. 45 (ग) संदसणेण पीती, पीतीनो रती, रतीतो वीसंभो। वीसंभातो पणतो पंचविहं बड्ढइ पेम्म // -अ. चू., पृ. 101 (क) व्रतानां प्राणातिपातविरत्यादीनां पीड़ा तदाक्षिप्तचेतसो भावविराधना। -हारि, वृत्ति, पत्र 165 (ख) पीडा नाम विणासो। —जिन. चूर्णि, पृ. 171 * बताणं बंभवतपहाणाणं पीला किचिदेव विराहणमुच्छेदो वा। समणभावे वा संदेहो अप्पणो परस्स वा / अप्पणो विसयविचालितचित्त समणभावं छड्डेमि, मा वा ? इति संदेहो, परस्स एवंविहत्थाणविचारी कि पव्वतितो विडो वेसछण्णो? ति संसयो। सति संदेहे चागविचित्तीकतस्स सब्दमहन्वतपीला / ..." - अगस्त्यचूणि पृ. 102 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org