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________________ पंचम अध्ययन : पिण्डषणा] [151 [83] भिक्षा का काल प्राप्त होने पर (भिक्षु) असम्भ्रान्त (अनुद्विग्न) और अमूच्छित (आहारादि में अनासक्त) होकर इस (प्रागे कहे जाने वाले) क्रम-योग (विधि)से भक्त-पान (भोजनपानी) की गवेषणा करे // 1 // [84] ग्राम या नगर में गोचरान के लिए प्रस्थित (निकला हुअा) मुनि अनुद्विग्न और अव्याक्षिप्त (एकाग्न = स्थिर) चित्त से धीमे-धीमे चले // 2 // [85] (वह भिक्षु) आगे (सामने) युगप्रमाण पृथ्वी को देखता हुग्रा तथा बीज, हरियाली (हरी वनस्पति), (द्वीन्द्रियादि) प्राणी, सचित्त जल और सचित्त मिट्टी (च शब्द से अग्निकाय आदि) को टालता (बचाता) हुअा चले / / 3 / / [86] अन्य मार्ग के (विद्यमान) होने पर (साधु या साध्वी) गड्ढे आदि, ऊबडखाबड़ (विषम भूमि), भूभाग, ठूठ (कटे हुए सूखे पेड़ या अनाज के डंठल) और पंकिल (कीचड़ वाले) मार्ग को छोड़ दे; तथा संक्रम (जल या गड्डे पर काष्ठ आदि रख कर बनाये हुए कच्चे पुल) के ऊपर से न जाए // 4 // [87] (साधु या साध्वी) उन गड्ढे आदि से गिरता हुआ या फिसलता (स्खलित होता) हुआ प्राणियों और भूतों-त्रस या स्थावर जीवों की हिंसा कर सकता है / [88] इसलिए सुसमाहित (सम्यक् समाधिमान्) संयमी साधु अन्य मार्ग के होते हुए उस मार्ग से न जाए। यदि दूसरा मार्ग न हो तो (निरुपायता की स्थिति में) यतनापूर्वक (उस मार्ग से) जाए // 6 // [हिलते हुए काष्ठ (लक्कड़), शिला, ईंट अथवा संक्रम (कच्चे पुल) पर से भिक्षु न जाए, (उस पर से जाने) में ज्ञानियों ने असंयम देखा है / ] [6] संयमी (साधु या साध्वी) अंगार (कोयलों) की राशि, राख के ढेर, भूसे (तुष) की राशि, और गोबर पर सचित्त रज से युक्त पैरों से उन्हें अतिक्रम (लांघ) कर न जाए // 7 // [10] वर्षा बरस रही हो, कुहरा (धुध) पड़ रहा हो, महावात (भयंकर अंधड़) चल रहा हो, और मार्ग में तिर्यञ्च संपातिम जीव उड़ (या छा) रहे हों तो भिक्षाचरी के लिए न जाए // 8 // विवेचन--भिक्षाटन सम्बन्धी विधि-निषेध-प्रस्तुत अष्टसुत्री (गा. 1 से 8 तक) में भिक्षा के उद्देश्य से प्रस्थान-काल, तथा भिक्षार्थगमन में उत्सर्ग-अपवाद विधि एवं निषेध का प्रतिपादन किया गया है / भिक्षाचर्या साधु-साध्वी के लिए प्रत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति है। इसका उद्देश्य शास्त्रोक्त विधि के अनुसार निर्दोष आहार उच्च-नीच-मध्यम कलों से समभावपूर्वक लाकर जीवन-निर्वाह करना है / इसीलिए यहाँ भिक्षु-भिक्षुणी को चित्तवृत्ति के लिए चार शब्द प्रस्तुत किये हैं असम्भ्रांत, अमूछित, अनुद्विग्न, मंदगति से गमन / असम्भ्रांत का तात्पर्य यह है कि भिक्षाकाल में भिक्षा के लिए बहुत-से भिक्षाचर पहुंच चुके होंगे, अतः उनको भिक्षा दे देने के बाद मेरे लिए क्या बचेगा? यह सोचकर हडबड़ी में जल्दी-जल्दी भिक्षाचर्या के लिए प्रस्थान करने की वृत्ति न हो / मूर्छा का अर्थप्रासक्ति, गद्धि या लालसा है। उससे प्रेरित हो कर स्वादिष्ठ या गरिष्ठ भोजन की लालसा से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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