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________________ 148] दिशवकालिकसूत्र * अपनी सर्वस्व चल-अचल संपत्ति एवं परिवार आदि के ममत्व का परित्याग करके स्वपरकल्याण के मार्ग में जिसने अपनी काया समर्पित कर दी है, वही साधु-साध्वी ऐसी सर्वसम्पत्करी भिक्षा प्राप्त करने के अधिकारी हैं / परन्तु वे कब, किससे, किस विधि से, किस प्रकार का आहार निर्दोष भिक्षा के रूप में प्राप्त कर सकते हैं ? इसका विस्तृत वर्णन इस पंचम अध्ययन के दो उद्देशकों में किया गया है। * भिक्षु को माहारादि जो कुछ प्राप्त करना होता है, वह भिक्षा द्वारा ही प्राप्त करना होता है / 'याचना' को बाईस परीषहों में से एक परीषह माना है। परन्तु भिक्षु को इस परीषह पर विजय प्राप्त करके अहिंसादि की मर्यादा का ध्यान रखते हुए किसी की भावना को ठेस न पहुँचाते हुए, तथा सूक्ष्म जीवों को जरा भी पीड़ा न पहुँचाते हुए आहार के एषणादोषों से बचाव करते हुए पूर्ण विशुद्धिपूर्वक कठोर भिक्षाचर्या करनी चाहिए। पिण्डैषणा से सम्बन्धित कुल 47 दोष माने जाते हैं, जिनमें उद्गम और उत्पादन के 16+ 16=32 दोष गवैषणासम्बन्धी हैं, तथा 10 एषणादोष हैं, जिन्हें ग्रहणषणा सम्बन्धी दोष कहा जा सकता है / 5 मण्डलदोष हैं, जो परिभोगैषणा सम्बन्धी हैं / इनके नाम इस प्रकार हैंसोलह उद्गम (आहारोत्पत्ति) के दोष-(१) प्राधाकर्म, (2) औद्देशिक, (3) पूतिकर्म, (4) मिश्रजात, (5) स्थापना, (6) प्राभृतिका, (7) प्रादुष्करण, (8) क्रीत, (6) पामित्य, (10) परिवर्त, (11) अभिहत, (12) उद्भिन्न, (13) मालापहृत, (14) आच्छेद्य, (15) अनिसृष्ट, और (16) अध्यवपूरक (अध्यवतरक)। सोलह उत्पादन (आहारयाचना) के दोष--(१) धात्री (2) दूती, (3) निमित्त, (4) आजीव, (5) वनीपक, (6) चिकित्सा, (7) क्रोध, (8) मान, (6) माया, (10) लोभ, (11) पूर्व-पश्चात्-संस्तव, (12) विद्या, (13) मंत्र, (14) चूर्ण, (15) योग और (16) मूलकर्म / एषणा के (साधु और गृहस्थ दोनों से लगने वाले) दस दोष-(१) शंकित, (2) म्रक्षित, (3) निक्षिप्त, (4) पिहित, (5) संहृत, (6) दायक, (7) उन्मिश्र, (8) अपरिणत, (9) लिप्त, और (10) छदित / परिभोगैषणा सम्बन्धी (भोजन को निन्दा-प्रशंसादि से उत्पन्न) पांच-दोष-(१) अंगार, (2) धूम, (3) संयोजन, (4) प्रमाणातिरेक और (5) कारणातिक्रान्त / ये 47 दोष-पागम साहित्य में एकत्र कहीं भी प्रतिपादित नहीं हैं किन्तु विविध आगमों में बिखरे हुए हैं। * इन दोषों में से अधिकांश का उल्लेख प्रस्तुत अध्ययन में है / इसके अतिरिक्त किस समय, किस विधि से, किस मार्ग से, किस प्रकार भिक्षाचर्या के लिए साधु-साध्वी प्रस्थान 7. (क) दशवं. (संतबालजी) पृ. 42 (ख) दशवे. (प्राचारमणिमंजूषा टोका) भा. 1 पृ. 375 8. (क) दसवैयालियं (मुनि नथ.) पृ. 178 (ख) दशवै. (संतबालजी) पृ. 42-43 9. (क) स्था. 962, (ख) निशीथ उद्दे . 12, (ग) आचारचूला 1 / 21, (घ) भगवती 71 (ङ) प्रश्न व्या. 1115 (च) दशव. अ. 5 उ. 1 (छ) उत्तराध्ययन 26 // 32, (ज) भगवती 71 (ञ) पिण्डनियुक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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