SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 132] [दशवकालिकसूत्र [65] (क्योंकि व्यक्ति) श्रवण करके ही कल्याण का जानता है और श्रवण करके ही पाप को जानता है / कल्याण और पाप-दोनों को सुनकर ही व्यक्ति जान पाता है, (तत्पश्चात् उनमें से) जो श्रेय है, उसका आचरण करता है / / 34 // , [66] जो जीवों को भी नहीं जानता (और) अजीवों को भी नहीं जानता, जीव और अजीव दोनों को नहीं जानने वाला वह (साधक) संयम को कैसे जानेगा? / / 35 / / [67] जो जीवों को भी विशेषरूप से जानता है और अजीवों को भी विशेषरूप से जानता है, (इस प्रकार) जीव और अजीव दोनों को विशेष रूप से जानने वाला ही संयम को जान सकेगा।३६। [68] जब साधक जीव और अजीव, दोनों को विशेषरूप से जान लेता है, तब वह समस्त जीवों की बहुविध गतियों को भी जान लेता है / / 37 / / [66] जब (साधक) सर्वजीवों की बहुविध गतियों को जान लेता है, तब वह पुण्य और पाप तथा बन्ध और मोक्ष को भी जान लेता है / / 38 / / विवेचन-ज्ञान का स्थान प्रथम क्यों?—यह एक निश्चित सिद्धान्त है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के बिना चारित्र सम्यक नहीं होता / सम्यग्ज्ञान होगा तो व्यक्ति श्रेय-प्रेय, हितकर-अहितकर तत्त्वों को छांट लेगा, चारित्र के साथ घुल जाने वाली विकृतियों को दूर कर देगा और वास्तविक रूप से सम्यक्चारित्र का पालन करेगा। दूसरी बात यह है कि साधक का जीव-अजीव का विज्ञान जितना सीमित होगा, दया (अहिंसा) आदि चारित्र की भावना उतनी ही संकुचित एवं मंद होगी। जीवों का व्यापक ज्ञान होने से उनके प्रति दयाभाव, मैत्री, आत्मौपम्यभाव उतना ही व्यापक और विकसित होगा / जीवों का व्यापक ज्ञान होने पर उनकी गति-प्रागति आदि का अन्तर तथा तत्सम्बद्ध पुण्य-पाप का अन्तर समझ में आएगा, और फिर आत्मविकास को रोकने वाले कर्मबन्ध का भी रहस्य मालूम पड़ेगा, जिससे साधुवर्ग की जिज्ञासा चतुर्गतिक संसार में जन्म-मरण के कारणभूत कर्मों के बंध को काटने और कर्मावरण दूर करके प्रात्मा को शुद्ध, बुद्ध, कर्ममुक्त बनाने की होगी। तभी तो वह कर्मबन्धन से मुक्त होने के लिए सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप का आचरण करेगा / इस दृष्टि से सम्यग्ज्ञान को प्राथमिकता दी गई है। ज्ञान से जीव के स्वरूप, संरक्षणोपाय और फल का बोध होता है / गीता में स्पष्टतः कहा गया है-ज्ञान के समान कोई भी पवित्र वस्तु इस जगत् में नहीं है / ज्ञानरूपी अग्नि सर्वकर्मों को भस्म कर देती है। 187 इसीलिए यहाँ कहा गया है . . 107. (क) दशवै. (प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी म.) पृ. 121 (ख) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी) पृ. 164 (ग) प्रथममादौ, ज्ञान-जीवस्वरूप-संरक्षणोपाय-फलविषयं, तत: तथाविधज्ञान-समनन्तरं दया-संयमस्तदेकातोपादेयतया भावतस्तप्रवृत्तेः / -हारि. वृत्ति, पत्र 157 (घ) न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते / ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन ! / --भगवद्गीता 4.38 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy