________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका] [131 हो या स्थित हो, पाप प्रवेश नहीं कर पाता / 05 गीता में भी इससे मिलता-जुलता चिन्तन है / 106 जीवादि तत्त्वों के ज्ञान का महत्त्व 64. 'पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सम्वसंजए। अन्नाणी कि काही ?, किंवा नाहीइ छेय-पावगं // 33 // 65. सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं / उभयं पि जाणई सोच्चा, जं छेयं * तं समायरे // 34 // 66. जो जीवे विन याणति, प्रजोवे वि न याणति / __ जीवाऽजीवे प्रयाणतो, कहं सो नाहीइ संजमं // 35 // 67. जो जीवे वि बियाणेइ, प्रजोवे वि वियाणति / जीवाऽजीवे वियाणंतो, सो हु नाहीइ संजमं // 36 / / 68. जया जीवमजीवे य, दो वि एए वियाणई। ___तया गई बहुविहं, सम्यजीवाण जाणई // 37 / / 69. जया गई बहुविहं, सव्वजोवाण जाणई। तया पुण्णं च पावं च, बंधं मोक्खं च जाणई // 38 // [64] 'पहले ज्ञान और फिर दया है'---इस प्रकार (क्रम) से सभी संयमी (संयम में) स्थित होते हैं / अज्ञानी (बेचारा) क्या करेगा ? वह श्रेय और पाप को क्या जानेगा ! // 33 // 105. (क) ""सव्वभूतेसु अप्पभूतो, कहं ? जहा मम दुक्खं अणिठे इह, एवं सव्वजीवाणं ति काउं पीडा नो उप्पायइ, एवं जो सव्वभूएसु अप्पभूतो, तेण जीवा सम्म उवलद्धा भवंति / भणियं च"कट ठेण कंटएण व पादे विद्धस्स वेदणा तस्स / जा होइ अणेवाणी णायव्वा सब्बजीवाणं // " (ख) 'पिहियाणि पाणिवधादीणि ग्रासबदाराणि जस्स सो पिहियासववारो तस्स / " -जिनदास चूर्णि, पृ. 160 (ग) 'दंतस्स-दंतो इंदिएहिं गो इंदिएहि य / इंदियदमो सोइंदियपयारनिरोहोवा सद्दातिरागद्दोसणिम्गहोवा, एवं सेसेसु वि ! गोइं दियदमो कोहोदयणिरोहो वा उदयपत्तस्स विफलीकरणं वा, एवं जाव लोभो। तहा अकुसलमणगिरोहो वा कुसलमणउदीरणं वा, एवं वाया कातो य / तस्स इंदियणोइंदियदंतस्स पावं कम्मं ण बज्झति, पुब्बबद्ध च तवसा खीयति / " -अगस्त्य चूणि, पृ. 93 (घ) जलमज्झे जहा नावा, सवनो निपरिस्सवा / गच्छंती चिट्ठमाणा बा, न जलं परिगिण्हइ / / एवं जीवाउले लोगे, साहु संवरियासवो। गच्छंतो चिट्ठमाणो वा, पावं नो परिगेण्हइ / / -जि. चू., पृ. 159 106. योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः / सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते // - गीता 57 / पाठान्तर सेय-पावगं / * सेयं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org