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________________ 116] [दशवकालिकसूत्र न करेमि, न कारवेमि, करेंतं पि अन्नं न समणुजाणामि / तस्स भंते ! पडिक्कमामि, निदामि गरहामि अप्पाणं वोसिरामि // 22 // [54] से मिक्ख वा भिक्खुणी वा संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मे, दिया वा, रानो वा, एगो वा परिसागओवा, सुत्ते या जागरमाणे वा, से कोडं वा, पयंग घा, कुथुवा, पिवीलिपं वा; हत्थंसि वा, पायंसि वा, बाहंसि वा, ऊरुसि वा, उदरंसि वा, सीसंसि वा, वस्थंसि वा, पडिग्गहंसि वा, कंबलंसि वा, पायपुछणंसि वा, रयहरणंसि वा, गोच्छगंसि वा, उंडगंसि वा दंडगंसि वा, पीढगंसि वा, फलगंसि वा, सेज्जसि वा, संथारगसि वा, अन्नयरंसि वा, तहप्पगारे उवगरणजाए तओ संजयामेव पडिलेहिय पडिलेहिय पमज्जिय पमज्जिय एगंतमवणेज्जा,* नो णं संघायमावज्जेज्जा / / 23 // [46] (पांच महाव्रतों को धारण करने वाला) वह भिक्षु अथवा भिक्षुणी, जो कि संयत है, विरत है, जो पापकर्मों का निरोध और प्रत्याख्यान कर चुका है, दिन में या रात में, एकाकी (या एकान्त में) हो या परिषद् में, सोते अथवा जागते; पृथ्वी को, भित्ति (नदी तट की मिट्टी) को शिला को, ढेले (या पत्थर) को, सचित्त रज से संसृष्ट काय, या सचित्त रज से संसृष्ट वस्त्र को, हाथ से, पैर से, काष्ठ से, अथवा काष्ठ के खण्ड (टुकड़े) से, अंगुलि से, लोहे की सलाई (शलाका) से, शलाकासमूह (अथवा सलाई की नोक) से, न पालेखन करे, न विलेखन करे, न घट्टन करे, और न भेदन करे; दूसरे से न पालेखन कराए, न विलेखन कराए, न घट्टन कराए और न भेदन कराए; तथा आलेखन, विलेखन, घट्टन और भेदन करने वाले अन्य किसी का अनुमोदन न करे; (भंते ! मैं पृथ्वीकाय की पूर्वोक्त प्रकार की विराधना से विरत होने की प्रतिज्ञा) यावज्जीवन के लिए, तीन करण तीन योग से (करता हूँ।) (अर्थात्--) मैं (स्वयं पृथ्वीकाय-विराधना) नहीं करूंगा, न दूसरों से कराऊँगा और न पृथ्वीकाय-विराधना करने वाले अन्य किसी का अनुमोदन करूँगा। भंते ! मैं उस (अतीत की पृथ्वीकाय-विराधना) से निवृत्त होता है; उसकी (आत्मसाक्षी से) निन्दा करता हूँ; (गुरुसाक्षी से) गहीं करता हूँ, (उक्त) प्रात्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ / / 18 / / / [50] वह भिक्षु अथवा भिक्षणी, जो कि संयत है, विरत है, तथा जिसने पापकर्मों का निरोध (प्रतिहत) और प्रत्याख्यान किया है ; दिन में अथवा रात में, एकाकी (या एकान्त में) हो या परिषद् में, सोते या जागते; उदक (कुए आदि के सचित्त जल) को, प्रोस को, हिम (बर्फ) को, धुअर को, ओले को, भूमि को भेद कर निकले हुए जलकण को, शुद्ध उदक (अन्तरिक्ष-जल) को, अथवा जल से भीगे हुए शरीर को, या जल से भीगे हुए वस्त्र को, जल से स्निग्ध शरीर को अथवा जल से स्निग्ध वस्त्र को न (प्रामर्श) एक बार थोड़ा-सा स्पर्श करे न बार-बार अथवा अधिक संस्पर्श करे, न पापीडन (थोड़ा-सा या एक बार भी पीडन) करे, या न प्रपीडन करे (बारबार या अधिक पीडन करे); अथवा न प्रास्फोटन करे (एक बार या थोड़ा-सा भी झटकाए) और न प्रस्फोटन करे (बार-बार या अधिक झटकाए); अथवा न पातापन करे (एक बार या थोड़ा-सा भी पाठान्तर-* "अवक्कमेज्जा।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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