________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका] [105 मस्तक झुकाते हैं, इसलिए भी ये महाव्रत कहलाते हैं / 51 (4) अथवा इन्हें चक्रवर्ती, राजा, महाराजा अथवा तीव्र वैराग्य सम्पन्न महान वीर व्यक्ति (स्त्री-पुरुष) धारण कर सकते हैं, इनका पाल सकते हैं, इस कारण भी ये महाव्रत कहलाते हैं; (5) ये सकलरूप से अंगीकार किये जाते हैं, विकलरूप से नहीं, तथा इनमें हिंसादि पांच पापों का जो त्याग किया जाता है, वह समग्र द्रव्य-क्षेत्र-कालभाव की अपेक्षा से किया जाता है, इस कारण भी इन्हें महाव्रत कहा गया है / 52 महादत : सर्वविरमणरूप--पांचों ही महाव्रतों के मूलपाठ में 'सन्वं' या 'सवाओं' शब्द निहित है, जिसका तात्पर्य है सभी प्रकार के (समस्त) प्राणातिपात आदि से विरतिरूप ये पांचों महाव्रत हैं। तत्पश्चात् प्रत्येक महाव्रत की प्रतिज्ञा के पाठ में सर्वशब्द का विशेष स्पष्टीकरण किया गया है / जैसे कि—सर्वप्राणातिपात विरमण महाव्रत में 'से सुहम वा बायरं वा' इत्यादि कहा गया है। तत्पश्चात् इसी सर्वशब्द के सन्दर्भ में तीनकरण, तीनयोग से (कृत, कारित, अनुमोदनरूप से, मन-वचन-काया से) प्राणातिपात ग्रादि पांचों पापों के सर्वथा प्रत्याख्यान का उल्लेख किया गया है। पांचों महावतों के प्रतिज्ञा-पाठ में उक्त सर्वप्राणातिपात आदि का तात्पर्य है—मैं मन-वचन-काया से कृत-कारित-अनुमोदनरूप प्राणातिपात, मृषावाद, आदि का आचरण नहीं करूंगा, मैं पूर्वोक्त सभी प्रकार के प्राणातिपात, मृषावाद आदि का प्रत्याख्यान करता हूँ। त्रिकरण-त्रियोग का स्पष्टीकरण पहले किया जा चुका है। अर्थात्-साध्वी या साधु महाव्रतों की प्रतिज्ञा के समय कहता है---श्रमणोपासक की तरह प्रत्येक व्रत में कुछ छूट रखकर मैं स्थूलरूप से प्राणातिपात आदि का प्रत्याख्यान नहीं करता, अपितु सर्व प्रकार के प्राणातिपात आदि का प्रत्याख्यान करता हूँ। सर्व का अर्थ हैनिरवशेष / महाव्रतों में किसी भी प्रकार की छुट या रियायत नहीं रहती। विरमण का अर्थ है-- सम्यग्ज्ञान और सम्यक श्रद्धापूर्वक प्राणातिपात आदि पापों से सर्वथा निवर्तन-निवृत्ति करना / 53 प्रत्येक महाव्रत के साथ द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से हिंसादि पापों से विरत होने का विधान भी 'सर्वविरमण' के अन्तर्गत आता है। प्रत्याख्यान : प्रतिज्ञा का प्राण-प्रत्येक महाव्रत को प्रतिज्ञा के प्रारम्भ में 'पच्चक्खामि' शब्द आता है। 'प्रत्याख्यान' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ इस प्रकार होता है-प्रत्याख्यान में तीन शब्द 51. (क) 'एभ्यो हिंसादिभ्य एकदेशविरतिरणुव्रतं, सर्वतो विरतिर्महाव्रतम् / ' -तत्त्वार्थ, 7 / 2 भाष्य (ख) तत्त्वार्थ. 71 भाष्य सिद्धसेनीया टीका, (ग) 'अकरणं निवृत्तिरुपरमो बिरतिरित्यनन्तरम् / ' तत्त्वार्थ. 72 भाष्य (घ) दशवे. (प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी म.), पृ. 72-73 52. (क) महच्च तद्वत महावतं; महत्वं चास्य श्रावकसम्बन्ध्यणुवतापेक्षयेति। -हारि. वत्ति, पत्र 144 (ख) 'सकले महति वते महब्बते।' -अगस्त्य चूणि, पृ. 80 / (ग) जम्हा य भगवंतो साधवो तिविहं तिबिहेण पच्चक्खायंति, तम्हा तेसि महव्वयाणि भवंति, सावयाणं पुण तिविहं दुविहं पच्चक्खायमाणाणं देसविरईए खुड्डुलगाणि वयाणि भवंति / —जिनदास. चूणि, पृ. 146 53. (क) सर्वमिति निरव शेपं, न तु परिस्थूरमेव / -हारि. वृत्ति, पत्र 144 (ख) 'विरमणं नाम सम्यग्ज्ञान-श्रद्धानपूर्वकं सर्वथा निवर्तनम् / / हारि. वृत्ति, पत्र 144 (ग) दशवकालिक (प्राचार्य श्री यात्मारामजी महाराज), पृ. 73 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org