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________________ 104] [दशवकालिकसूत्र से, स्वयं (रात्रिभोजन) नहीं करूंगा; न (दूसरों से रात्रिभोजन) कराऊंगा और न (रात्रिभोजन करने वाले अन्य किसी का) अनुमोदन करूगा। भंते ! मैं उससे (अतीत के रात्रिभोजन से) निवृत्त होता हूँ, (आत्मसाक्षी से उसकी) निन्दा करता हूँ, (गुरुसाक्षी से) गर्दा करता हूँ और (रात्रिभोजनयुक्त) प्रात्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ। भंते ! मैं छठे व्रत (-पालन) के लिए उपस्थित (उद्यत) हुआ हूँ, जिसमें सब प्रकार के रात्रिभोजन से विरत होना होता है / / 16 / / [48] इस प्रकार मैं इन (अहिंसादि) पांच महाव्रतों और रात्रिभोजन-विरमण रूप छठे व्रत को प्रात्महित के लिए अंगीकार करके विचरण करता है / / 17 / / विवेचन सामान्य दण्डसमारम्भ-त्याग के बाद विशेष दण्डसमारम्भ-त्याग--इसके पूर्व के अनुच्छेद में शिष्य द्वारा सार्वत्रिक एवं सार्वकालिक सामान्य दण्ड-समारम्भ के प्रत्याख्यान की प्रतिज्ञा का उल्लेख है और उसके बाद प्रस्तुत 7 सूत्रों (42 से 48 तक) में विशेष रूप से दण्डसमारम्भ का प्रत्याख्यान / इन विशिष्ट दण्ड-समारम्भों से दूसरे जीवों को परिताप होता है / अतः इन 7 सूत्रों में अहिंसादि पांच महाव्रतों और छठे रात्रि-भोजनत्याग रूप व्रत की शिष्य द्वारा की जाने वाली प्रतिज्ञा का निरूपण है।४६ महाव्रत और रात्रिभोजनविरमणव्रत में अन्तर—यहाँ प्राणातिपातविरमण आदि को महावत और रात्रिभोजनविरमण को व्रत कहा गया है / किन्तु यहाँ व्रत शब्द अणुव्रत और महाव्रत दोनों से भिन्न है, क्योंकि अणुव्रत और महाव्रत ये दोनों मूलगुण हैं, किन्तु रात्रिभोजनविरमण व्रत मूलगुण नहीं है / व्रतशब्द का यह प्रयोग सामान्यविरति या नियम के अर्थ में है / 50 महावत : क्या, क्यों और कैसे ?-मूलगुण अहिंसादि पांच हैं। इन्हीं की महाव्रत संज्ञा है। व्रतशब्द साधारण है। इसके दो भेद आंशिक विरति (देशविरति) और सर्वविरति के प्राधार पर किये गए हैं-अणुव्रत और महाव्रत / ये दो शब्द सापेक्ष हैं, तथा विरति की अपूर्णता और पूर्णता की अपेक्षा से प्रयुक्त होते हैं / अर्थात्-मूल में अंकित पाठ के अनुसार मन-वचन-काया से प्राणातिपातादि न करना, न कराना और न अनुमोदन करना, यों नौ कोटि प्रत्याख्यानों से महाव्रत पूर्णविरति रूप होते हैं, जबकि अणुव्रत में इनमें से कुछ विकल्प (छूटें-रियायतें) रख कर शेष प्राणातिपात आदि का त्याग किया जाता है। इस प्रकार अपूर्ण विरति अणवत कहलाती है और पूर्ण विरति महाव्रत / व्रत के निषेधात्मक और विधेयात्मक दोनों रूप होते हैं / इस प्रकार (1) अणुव्रतों की अपेक्षा महान् (विशाल) होने के कारण ये (अहिंसादि पांचों) महाव्रत कहलाते हैं। (2) दूसरा कारण है-- संसार के सर्वोच्च महाध्येय-मोक्ष के अतिनिकट के साधक होने से ये महावत कहलाते हैं / (3) इन व्रतों को धारण करने वाली आत्मा अतिमहान् एवं उच्च हो जाती है, इन्द्र एवं चक्रवर्ती श्रादि उसको 49. अयं च आत्मप्रतिपत्त्यहाँ दण्डनिक्षेपः सामान्यविशेषरूप इति, सामान्येनोक्तलक्षण एव, स तु विशेषत: पंचमहाव्रतरूपतयाऽप्यगीकर्तव्य इति महाग्रतान्याह / -हारि. वृत्ति, पत्र 144 10. दशव. (मुनि नथमलजी), पृ. 136 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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