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________________ 102] [दशवकालिक सूत्र [48] इच्चेइयाइं पंचमहन्वयाइं राईभोयणवेरमणछट्ठाई अत्तहियट्टयाए* उवसंपज्जिसाणं विहरामि // 17 // [42] भंते ! पहले महाव्रत में प्राणातिपात (जीवहिंसा) से विरमण (निवृत्ति) करना होता है / हे भदन्त ! मैं सर्व प्रकार के प्राणातिपात का प्रत्याख्यान (त्याग) करता हूँ। सूक्ष्म या बादर (स्थूल), त्रस या स्थावर, जो भी प्राणी हैं, उनके प्राणों का प्रतिपात (घात) न करना, दूसरों से प्राणातिपात न कराना, (और) प्राणातिपात करने वालों का अनुमोदन न करना; (इस प्रकार की प्रतिज्ञा मैं) यावज्जीवन के लिए, तीन करण, तीन योग से करता हूँ। (अर्थात् ) मैं मन से, वचन से और काया से, (प्राणातिपात) स्वयं नहीं करूंगा, न दूसरों से कराऊँगा और अन्य किसी करने वाले का अनुमोदन नहीं करूंगा। भंते ! मैं उस (अतीत में किये हुए प्राणातिपात) से निवृत्त (विरत) होता हूँ, (आत्मसाक्षी से उसकी) निन्दा करता हूँ, (गुरुसाक्षी से) गर्दा करता हूँ और (प्राणातिपात से या पापकारी कर्म से युक्त) अात्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ। __ भंते ! मैं प्रथम महाव्रत (-पालन) के लिए उपस्थित (उद्यत) हुआ हूँ। जिसमें सर्वप्रकार के प्राणातिपात से विरत होना होता है // 11 // [43] भंते ! (प्रथम महावत के अनन्तर) द्वितीय महावत में मृषावाद से विरमण होता है / भंते ! मैं सब (प्रकार के) मृषावाद का प्रत्याख्यान (त्याग) करता हूँ। क्रोध से, लोभ से, भय से या हास्य से, स्वयं असत्य (मृषा) न बोलना, दूसरों से असत्य नहीं बुलवाना और दूसरे असत्य बोलने वालों का अनुमोदन न करना; (इस प्रकार की प्रतिज्ञा मैं) यावज्जीवन के लिए, तीन करण, तीन योग से करता हूँ। (अर्थात्) मैं मन से, वचन से, काया से, (मृषावाद) स्वयं नहीं करूंगा, न (दूसरों से) कराऊँगा और न अन्य किसी करने वाले का अनुमोदन करूंगा। भंते ! मैं उस (अतीत के मृषावाद) से निवृत्त होता हूँ; (आत्मसाक्षी से उसकी) निन्दा करता हूँ; (गुरुसाक्षी से) गर्दा करता हूँ और (मृषावाद से युक्त) अात्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ। ___भंते ! मैं द्वितीय महाव्रत (-पालन) के लिए उपस्थित हुआ हूँ, (जिसमें) सर्व-मृषाबाद से विरत होना होता है / / 12 / / [44] भंते ! (मृषावादविरमण नामक द्वितीय महावत के पश्चात्) तृतीय महाव्रत में अदत्तादान से विरति होती है। भंते ! मैं सब प्रकार के अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता हूँ / जैसे कि-गाँव में, नगर में या अरण्य में, (कहीं भी) अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त (सजीव) हो या अचित्त (निर्जीव), (किसी भी) अदत्त वस्तु का स्वयं ग्रहण न करना, दूसरों से अदत्त वस्तु का ग्रहण न कराना और अदत्त वस्तु का ग्रहण करने वाले अन्य किसी का अनुमोदन न करना; यावज्जीवन के लिए, तीन करण, तीन योग से; (इस प्रकार की प्रतिज्ञा करता हूँ।) (अर्थात्--) मैं मन से, वचन से, काया से, स्वयं (अदत्त वस्तु को ग्रहण) नहीं करूंगा, न ही दूसरों से कराऊँगा और (अदत्त वस्तु-) ग्रहण करने वाले अन्य किसी का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। * पाठान्तर—'अत्तहियट्ठाए / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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