________________ 70] [दशवकालिकसूत्र निर्ग्रन्थों का विशिष्ट प्राचार 27. पंचासव-परिन्नाया, तिगुत्ता छसु संजया। पंचनिग्गहणा धोरा, निग्गंथा उज्जुदंसिणो // 11 // 28. आयावयंति गिम्हेसु, हेमंतेतु अवाउडा। वासासु पडिसंलोणा, संजया सुसमाहिया // 12 // 29. परोसह-रिऊ-दंता, धयमोहा जिइंदिया। सम्बदुक्खप्पहीणट्ठा पक्कमंति महेसिणो // 13 // [27] (वे पूर्वोक्त) निग्रन्थ पांच आश्रवों को भलीभांति जान कर उनका परित्याग करने वाले, तीन गुप्तियों से गुप्त, षड्जीवनिकाय के प्रति संयमशील, पांच इन्द्रियों का निग्रह करने वाले, धीर और ऋजुदर्शी होते हैं / / 11 / / [28] (वे) सुसमाहित संयमी (निर्ग्रन्थ) ग्रीष्म ऋतु में (सूर्य को) पातापना लेते हैं; हेमन्त ऋतु में अपावृत (खुले वदन) हो जाते हैं, और वर्षा-ऋतु में प्रतिसंलोन हो जाते हैं / / 12 / / [26] (वे) महर्षि परीषहरूपी रिपुत्रों का दमन करते हैं; मोह (मोहनीय कर्म) को प्रकम्पित कर देते हैं और जितेन्द्रिय (हो कर) समस्त दुःखों को नष्ट करने के लिए पराक्रम करते हैं / / 13 // विवेचन–अनाचोर्णत्यागी निर्ग्रन्थों को 14 आचार-अर्हताएँ-प्रस्तुत तीन गाथानों (11. 12-13) में पूर्वोक्त अनाचोर्णत्यागो निर्ग्रन्थ महर्षियों की प्राचार-प्रर्हताएँ प्रस्तुत को हैं / तात्पर्य यह है--जिनका आचार इतना कठोर होगा, जिन निर्ग्रन्थों को ऐसी कठोर प्राचारचर्या (प्रणाली) होगो, वे ही अनाचोर्गों से सर्वया दूर रहने में सक्षम होंगे। स्पष्टीकरण इस प्रकार है पंचाश्रव-परिज्ञाता-जिनसे प्रात्मा में कर्मों का आगमन होता है, वे प्राश्रय कहलाते हैं। वे अाश्रव मुख्यतया पांच हैं-हिंसा, असत्य, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह / ये पांच प्राव (प्राश्रव द्वार) हैं / वैसे आगमों में कर्मो के आश्रव (प्रागमन) के पांच कारण बताए हैं-(१) मिथ्यात्व, (2) अविरति, (3) प्रमाद, (4) कषाय और (5) योग / पाश्रव के कारण होने से इन्हें भी पाश्रव कहा जाता है। परिज्ञा' शास्त्रीय पारिभाषिक शब्द है। उसके दो प्रकार हैं-'ज्ञपरिज्ञा' पोर 'प्रत्याख्यानपरिज्ञा।' जो पंचाश्रव के विषय में दोनों परिज्ञानों से युक्त हैं वे ही पंवाश्रवपरिज्ञाता हो सकते हैं। ज्ञपरिज्ञा से पांचों पाश्रवों का स्वरूप भलीभांति जाना जाता है, और प्रत्याख्यान परिज्ञा से उनका परित्याग किया जाता है। तात्पर्य यह है कि जो पांचों पाश्रवों को अच्छी तरह जान कर उन्हें त्याग चुका है, या उनका निरोध कर चुका है, वहीं पंचायत्रपरिज्ञाता होता है / जो केवल पाश्रवों को जानता है, और जानते हए भो उनका प्राचरण करता है, वह पंचाश्रव-परिज्ञाता नहीं, अपितु बालकवत् अज्ञानी है।४६ 49. जिनदास. चूणि, पृ. 116 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org