________________ तृतीय अध्ययन : क्षुल्लिकाचार-कथा] हो जाती है और अन्त में या तो उसका ब्रह्मचर्य भग्न हो जाता है या वह उन्माद को प्राप्त हो जाता है, दीर्घव्याधिग्रस्त हो जाता है अथवा वह सर्वज्ञप्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः ब्रह्मचारी के लिए विभूषात्याग अनिवार्य है। विभूषानुवर्ती भिक्षु चिकने कर्म बांधता है, जिसके कारण वह दुस्त्तर घोर संसारसागर में गिर जाता है / 45 निर्ग्रन्थों के लिए पूर्वोक्त अनाचीर्ण अनाचरणीय 26. सब्वमेयमणाइण्णं निग्गंथाण महेसिणं / संजमम्मि य जुत्ताणं लहुभूय विहारिणं // 10 // [26] 'जो संयम (और तप) में तल्लीन (उद्युक्त) हैं, वायु की तरह लघुभूत हो कर विहार (विचरण) करते हैं, तथा जो निर्ग्रन्थ महर्षि हैं, उनके लिए ये सब अनाचीर्ण (अनाचरणीय) हैं।' / / 10 / / विवेचन-ये सब अनाचीर्ण क्यों और किन के लिए ?-प्रस्तुत गाथा में पूर्वोक्त 52 अनाचारों का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार ने विशेष रूप से प्रतिपादित किया है कि ये सब अनाचीर्ण किन के लिए और क्यों हैं ? चार अहंताओं से युक्त श्रमणवरों के लिए ये अनाचीर्ण-(१) संयम में युक्त. (2) लघुभूत विहारी, (3) निर्ग्रन्थ और (4) महषि या महषी। इन चार अर्हताओं से युक्त श्रमणों के लिए ये आजीवन अनाचरणीय हैं। क्योंकि ये संयम के विघातक हैं। विशेष बात यह कि पूर्वोक्त 52 अनाचीणों में से कई अनाचीर्ण ऐसे भी हैं, जिन्हें सद्गृहस्थ भी वजित समझते हैं और उनसे दूर रहते हैं, तब फिर जिनका तप-संयम उच्च एवं उज्ज्वल है, वे महर्षि इन अनाचीणों से सर्वथा दूर रहें, इसमें आश्चर्य ही क्या? 46 संजमम्मि य जुत्ताणं : संयम में उद्युक्त–तत्पर या तल्लीन / 47 लघुभूतविहारी : (1) वायु की तरह अप्रतिबद्ध विहारी-द्रव्य (उपकरणों) से भी हल्के एवं भाव (कषाय) से भी हल्के होकर विचरण करने वाले, (2) मोक्ष के लिए विहार करने वाले, संयम में विचरण करने वाले 148 -- - - 45. उत्तराध्ययन, अ. 16-11 46. दशवं. (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.), प्र. 47 47. (क) हारि. वृत्ति, पत्र 118 (ख) युक्त इत्युज्यते योगी : युक्तः समाहितः / गीता शांकरभाष्य 6-8, पृ. 177 48. (क) "लघुभूतोवायुः, ततश्च वायुभूतोऽप्रतिबद्धतया विहारो येषां ते लघुभूत विहारिणः / " -हारि. वृत्ति, पत्र 118 (ख) “लघुभूतो मोक्ष: संयमो वा, तं गन्तु शीलमस्येति लघुभूतगामी।" -आचा. 3-49, शीलांक वृत्ति, पत्र 148 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org