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________________ द्वितीय अध्ययन : श्रामण्य-पूर्वक] [33 में काम्य-भोग्य पदार्थों का उपभोग करने की लालसा तो विद्यमान है। तात्पर्य यह है कि ऐसे बाह्यत्यागी द्रव्यलिंगी के अन्तर में इच्छा रूप भूख जगी हुई है। वह मन ही मन सोचता है कि "मुझे भी सुन्दर वस्त्राभूषण मिलें तो मैं भी पहन, मैं भी सुगन्धित पदार्थों का उपभोग करूं; मैं भी सुखशय्याओं पर शयन करूँ, या नाना देश की सुन्दरियों के साथ विहरण करूँ, नाना प्रकार के सुन्दर गुदगुदे आसन मुझे भी मिलें तो उनका उपभोग करूँ।" ऐसी स्थिति में पदार्थों के देने से वे पदार्थ तो उसे मिलेंगे नहीं, किन्तु उनकी लालसा बनी रहेगी और जब-तब उनके निमित्त से संकल्प-विकल्प, प्रात-रौद्र ध्यान होते रहेंगे / शास्त्रकार ने ऐसे व्यक्ति को आदर्शत्यागी न मानने का प्रबल कारण बताया है 'प्रच्छंदा' / इसके मुख्य अर्थ दो हैं-(१) जो साधु स्वाधीन न होने सेपरवश होने से विषय भोगों को नहीं भोगता, (2) जो पदार्थ पास में नहीं हैं, अथवा जिन पदार्थों पर वश नहीं है / इस विषय में चूणि एवं टीका में एक उदाहरण दिया गया है -चन्द्रगुप्त के अमात्य चाणक्य के प्रति द्वेषशील, तथा नन्द के अमात्य सुबन्धु को मृत्यु के भय से अकाम रहने पर भी साधु नहीं कहा जा सकता, उसी प्रकार विवशता के कारण विषयभोगों को न भोगने से कोई सच्चा त्यागी नहीं कहला सकता / 15 कान्त एवं प्रिय में अन्तर–स्थूल दृष्टि से देखने पर कान्त और प्रिय दोनों शब्द एकार्थक प्रतीत होते हैं, परन्तु दोनों के अर्थ में अन्तर है। अगस्त्य-चूणि के अनुसार 'कान्त' का अर्थ–सहज सुन्दर और प्रिय का अर्थ-अभिप्रायकृत सुन्दर होता है / जिनदास महत्तर-णि में 'कान्त' का अर्थ-रमणीय और 'प्रिय' का अर्थ-'इष्ट' किया गया है। इस विषय में यहाँ चतुभंगी बन सकती है---(१) एक वस्तु कान्त होती है, पर प्रिय नहों, (2) एक वस्तु प्रिय होती है, कान्त नहीं; (3) एक वस्तु कान्त भी होती है, प्रिय भी, और (4) एक वस्तु न प्रिय होती है, न कान्त / तात्पर्य यह है कि किसी व्यक्ति को कान्तवस्तु में कान्तबुद्धि उत्पन्न होती है, जबकि किसी व्यक्ति को अकान्तवस्तु में भी कान्तबुद्धि उत्पन्न होती है। एक वस्तु, एक व्यक्ति के लिए कान्त होती है, वहीं वस्तु दूसरे के लिए अकान्त होती है / जैसे—नीम मनुष्य के लिए कड़वा होने से कान्त नहीं होता, किन्तु अमुक रोगी अथवा ऊँट के लिए कान्त होता है। क्रोध, असहिष्णता, अकृतज्ञता एवं मिथ्याभिनिवेश आदि कारणों से व्यक्ति को गुणसम्पन्न वस्तु भी अगुणयुक्त लगती है। अविद्यमान दोषदर्शन के कारण कान्त में भी अकान्तबुद्धि हो जाती है / एक माता को अपना पुत्र कालाकलूटा और बेडौल (अकान्त) होने पर भी मोहवश कान्त लगता है, इसी प्रकार एक सुन्दर सुरूप सुडौल व्यक्ति कान्त होने पर भी कलहकारी और क्रूर होने के कारण अप्रिय लगता है / अतः जो कान्त हो, वह प्रिय हो ही, ऐसा कोई नियम नहीं है। यही दोनों विशेषणों में अन्तर है।६ 14. हारि. वृत्ति, पत्र 91 15. एते वस्त्रादयः परिभोगा: केचिच्छन्दा न भुजते, नाऽसौ परित्यागः / --जि. चू . पृ, 81 16. (क) कंत इति सामन्नं प्रिय इति अभिप्रायकंतं / ---अ. च णि पृ. 43 . (ख) कमनीया: कान्ता: शोभना इत्यर्थः, प्रिया नाम इटा। -जि. च णि, पृ. 82 (ग) स्थानांग, स्था. 4.621 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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