________________ द्वितीय अध्ययन : श्रामण्य-पूर्वक] [31 में उग्रता पा जाती है, भोगी लोगों की देखा-देखी या ईर्ष्यावश मन में इन्द्रियविषयों के प्रति गाढ़ अनुराग पैदा हो जाता है; ये सब विषादग्रस्तता के लक्षण हैं / * विषादग्रस्तता के उद्गमस्थल-स्पर्शन आदि इन्द्रियों के विषय (अर्थात् --इन्द्रिय विषयों के देखने, सुनने, सूघने, चखने एवं छुने) से, क्रोध आदि कषायों के निमित्त से, क्षुधा आदि परीषहों से, वेदना (बेचैनी या प्रसुखानुभूति) से तथा देव-मनुष्य-तिर्यञ्चकृत उपसर्ग से विषादग्रस्तता के अपराध का उदगम होता है। अर्थात्-ये अपराध-पद हैं-विषाद-उत्पन्न होने के। ये ऐसे विकारस्थल हैं, जहाँ कच्चे साधक के पद-पद पर स्खलित एवं विचलित होने की सम्भावना है।" विषादग्रस्तता का उदाहरण-कामसंकल्पों के वशीभूत होने वाला व्यक्ति किस प्रकार बातबात में सुखसुविधावादी, सुकुमार कायर एवं शिथिल होकर विषादग्रस्त हो जाता है ? इसे समझाने के लिए वृत्तिकार एक उदाहरण देते हैं—कोंकण देश में एक वृद्ध पुरुष अपने पुत्र के साथ प्रवजित हुप्रा / युवक शिष्य अभी कामभोगों के रस से बिलकुल विरक्त नहीं हुआ था, किन्तु वृद्ध को वह अत्यन्त प्रिय था। एक दिन शिष्य कहने लगा-"गुरुजी ! जूतों के बिना मुझ से नहीं चला जाता, पैर छिल जाते हैं।" अनुकम्पावश वृद्ध गुरु ने उसे जूते पहनने की छूट दे दी। फिर एक दिन कहने लगा-"ठंड से पैर के तलवे फट जाते हैं।" वृद्ध ने मौजे पहनने की छूट दे दी। एक दिन बोला"धूप में मेरा मस्तष्क अत्यन्त तप जाता है / " वृद्ध गुरु ने उसे वस्त्र से सिर ढंकने की आज्ञा दे दी। इस पर भी एक दिन शिष्य बोला-"गुरुजी ! अब तो मेरे लिए भिक्षा के अर्थ घूमना कठिन है।" वृद्ध गुरु शिष्यमोहवश उसे वहीं भोजन लाकर देने लगे। एक दिन शिष्य बोला- "गुरुजी ! अब मुझसे भूमि पर शयन नहीं किया जाता।" गुरु ने उसे बिछौने पर सोने की आज्ञा दे दी / एक दिन लोच करने में असमर्थता प्रकट की तो गुरु ने क्षुरमुण्डन करने की छूट दे दी। एक दिन बोलाबिना नहाए रहा नहीं जाता तो गुरु ने प्रासुक पानी से स्नान करने की आज्ञा दी। इस प्रकार ज्योंज्यों शिष्य मांग करता गया, वृद्ध उसे मोहवश छूट देता गया। एक दिन शिष्य बोला-"गुरुजी ! अब मुझ से बिना स्त्री के रहा नहीं जाता।" गुरु ने उसे दुर्वृत्तिशील एवं अयोग्य जान कर अपने प्राश्रय से दूर कर दिया। इस प्रकार जो साधक इच्छानों और कामनाओं के वशीभूत होकर उनके पीछे दौड़ता है, वह पद-पद पर अपने श्रमणभाव से शिथिल, भ्रष्ट और विचलित होकर शीघ्र ही अपना सर्वनाश कर लेता है। फलितार्थ प्रस्तुत गाथा का फलितार्थ यह है कि जो साधक श्रामण्य (श्रमण भाव, प्रशमभाव या समभाव) का पालन करना चाहता है, उसे समग्र कामभोगों की वाञ्छा, लालसा एवं स्पृहा का *. दशवं. (मुनि नथमलजी) के आधार पर पृ. 23 11. इंदियविसय-कसाया परीसहा वेयणा य उवसम्गा / पा अवराहपया जत्थ विसीयंति दुम्मेहा // -नियुक्ति, गा. 175 12. हारि. वृत्ति, प. 79 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org