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________________ बिइयं अज्झयणं : द्वितीय अध्ययन सामण्णपुव्वगं : श्रामण्य-पूर्वक कामनिवारण के अभाव में श्रामण्य-पालन असंभव 6. कहं नु कुज्जा सामण्णं, जो कामे न निवारए। पए पए विसीयंतो, संकप्पस्स वसं गओ / / [6] जो व्यक्ति काम (-भोगों) का निवारण नहीं कर पाता, वह संकल्प के वशीभूत होकर पद-पद पर विषाद पाता हुआ श्रामण्य का कैसे पालन कर सकता है ?* विवेचन-धामण्यपालन-योग्यता की पहली कसौटी-प्रस्तुत अध्ययन की प्रथम गाथा में कामनिवारण के अभाव में संकल्प-विकल्पों के थपेड़ों से पाहत एवं विषादग्रस्त व्यक्ति के लिए श्रमणभाव का पालन अशक्य बताया गया है। श्रामण्य-पालन का अन्तस्तल--श्रामण्य का यहाँ व्यापक अर्थ है-श्रमणभाव, शमनभाव, समभाव, एवं सममनोभाव। समण शब्द के चार रूप और उनके व्यापक अर्थों पर पिछले अध्ययन में प्रकाश डाला गया है / इस दृष्टि से श्रामण्य के भी व्यापक रूप और उनके अर्थों पर विचार करें तो श्रामण्य-पालन के हार्द को पकड़ सकेंगे। जो व्यक्ति तप-संयम में या रत्नत्रयरूप मोक्ष मार्ग में स्वयं पुरुषार्थ (श्रमणभाव) नहीं करता, देवी-देवों या किसी अन्य शक्ति के आगे दीनतापूर्वक सांसारिक कामभोगों की याचना करता है, साथ ही कषायों तथा नोकषायों का शमन (शमनभाव) नहीं करता, तथा पातें-रौद्र ध्यान करता है, एवं इष्ट-अनिष्ट विषयों के प्रति समभाव नहीं रख पाता, पुनश्च जो विषय-कषायों के चक्कर में पड़कर अपने मन को प्रतिक्षण पापमय (अशुभ) बनाए रखता है, शूभ मन (सूमन) नहीं रख पाता, अर्थात--जो श्रामण्य-पालन नहीं कर पाता, वह श्रमण. भाव आदि के अभाव में उपर्युक्त दष्टियों से कामनिवारण नहीं कर सकेगा / वह विविध प्रकार के विकल्पों की उधेड़ बुन में अहर्निश दुःखी एवं संतप्त होता रहता है / ऐसा व्यक्ति श्रामण्य का आनन्द, मोक्षमार्ग का या प्रात्मा का स्वाधीन सुख प्राप्त नहीं कर सकता। यहाँ कामनिवारण और श्रामण्य-पालन का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध बताया है / अर्थात्-कामनिवारण के अभाव में श्रामण्यपालन नहीं हो सकता, और श्रामण्यपालन के अभाव में कामनिवारण नहीं हो सकता / इसीलिए शास्त्रकार ने गाथा के प्रारम्भ में ही कहा है-'कहं नु कुज्जा सामण्णं' / * तुलना कीजिए-दुक्करं दुत्तितिखञ्च अव्यत्तेन हि साम। बहूहि तत्थ सम्बाधा, यत्थ बालो विसीदतीति / कतिहं चरेय्य सामञ्ज, चित्तं चे न निवारये / पदे पदे विसोदेय्य संकप्पानं वसानुगो ति // 1 / 17 -संयुक्तनिकाय 1 / 217 पृ. 8 अर्थ---श्रामण्य अव्यक्त होने से दुष्कर, दुस्तितिक्ष्य (दुःसह) लगता है और जब उसके पालन में बहुत बाधाएँ पाती हैं तो बाल (अज्ञानी) जन अत्यन्त विषाद पाते हैं। जो व्यक्ति अपने चित्त को कामभोगों से निवारित नहीं कर सकता, वह कितने दिनों तक श्रमणभाव को पालेगा ! क्योंकि यह व्यक्ति संकल्पों के वशीभूत हो कर पद-पद खेदखिन्न होता रहेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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