________________ ये जो छह प्रकार प्रतिक्रमण के प्रतिपादित किये गये हैं, इनका मुख्य सम्बन्ध श्रमण की जीवनचर्या से है। संक्षेप में जिनका प्रतिक्रमण करना आवश्यक है, उनका संक्षेप में वर्गीकरण इस प्रकार हो सकता है२५ मिथ्यात्व, 14 ज्ञानातिचार और अठारह पापस्थानों का प्रतिक्रमण सभी साधकों के लिये दूसरी बात पंच महाव्रत; मन, वाणी, शरीर का असंयम; गमन, भाषण, याचना, ग्रहण-निक्षेप एवं मल-मूत्रविसर्जन आदि से सम्बन्धित दोषों का प्रतिक्रमण भी श्रमण साधकों के लिये आवश्यक है / पंच अणुव्रतों, तीन गुणवतों और चार शिक्षाव्रतों में लगने वाले अतिचारों का प्रतिक्रमण व्रती श्रावको के लिये आवश्यक है / जिन साधकों ने संलेखना व्रत ग्रहण कर रखा हो, उनके लिये संलेखना के पांच अतिचारों का प्रतिक्रमण आवश्यक है। प्रतिक्रमण जैन साधना का प्राणतत्त्व है। ऐसी कोई भी क्रिया नहीं जिसमें प्रमादवश स्खलना न हो सके / चाहे लघुशंका से निवृत्त होते समय, चाहे शौचनिवृत्ति करते समय, चाहे प्रतिलेखना करते समय, चाहे भिक्षा के लिये इधर-उधर जाते समय साधक को उन स्खलनाओं के प्रति सतत जागरूक रहना चाहिये / उन स्खलनाओं के सम्बन्ध में किचिनमात्र भी उपेक्षा न रखकर उन दोषों से निवृत्ति हेतु प्रतिक्रमण करना चाहिये। क्योंकि प्रतिकमण जीवन को मांजने की एक अपूर्व क्रिया है। साधक प्रतिक्रमण में अपने जीवन का गहराई से निरीक्षण करता है, उसके मन में, वचन में, काया में होती है / साधक साधना करते समय कभी क्रोध, मान, माया, लोभ से साधनाच्युत हो जाता है, उससे भूल हो जाती है तो वह प्रतिक्रमण के समय अपने जीवन का गहराई से अवलोकन कर एक-एक दोष का परिष्कार करता है। यदि मन में छिपे हुए दोष को लज्जा के कारण प्रकट नहीं कर सका, उन दोषों को भी सद्गुरु के समक्ष या भगवान् की साक्षी से प्रकट कर देता है। जैसे कुशल चिकित्सक परीक्षण करता है, और शरीर में रही हुई व्याधि को एक्स-रे आदि के द्वारा बता देता है, वैसे ही प्रतिक्रमण में साधक प्रत्येक प्रवृत्ति का अवलोकन करते हुए, उन दोषों को व्यक्त कर हल्का बनता है। प्रतिक्रमण साधक-जीवन की एक अपूर्व क्रिया है / यह वह डायरी है जिसमें साधक अपने दोषों की सूची लिखकर एक-एक दोष से मुक्त होने का उपक्रम करता है। वही कुशल व्यापारी कहलाता है, जो प्रतिदिन सायंकाल देखता है कि आज के दिन मैंने कितना लाभ प्राप्त किया है ? जिस व्यापारी को अपनी आमदनी का ज्ञान नहीं है, वह सफल व्यापारी नहीं हो सकता / साधक को देखना चाहिये कि आज के दिन ऐसा कौन सा कर्तव्य था जो मुझे करना चाहिये था, किन्तु प्रमाद के कारण मैं उसे नहीं कर सका? मुझे अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होना चाहिये था। इस प्रकार वह अपनी भूलों को स्मरण करता है। भूलों का स्मरण करने से उसे अपनी सही स्थिति का परिज्ञान हो जाता है। जब तक भूलों का स्मरण नहीं होगा, भूलों को भूल नहीं समझा जाएगा, तब तक उनका परिष्कार हो नहीं सकता / साधक अनेक बार अपनी भूलों को भूल न मानकर उन्हें सही मानता है पर वस्तुतः वह उसकी भूलें ही होती हैं। कितने ही व्यक्ति भूल को भूल समझते हुए भी उसे स्वीकार नहीं करते / पर जब साधक अन्तनिरीक्षण करता है तो उसे अपनी भूल का परिज्ञान होता है / कहा जाता है कि सुप्रसिद्ध विचारक फ्रेंकलिन ने अपने जीवन को डायरी के माध्यम से सुधारा था। उसके जीवन में अनेक दुर्गुण थे। वह अपने दुर्गुणों को डायरी में लिखा करता था और फिर गहराई से उनका चिन्तन करता था कि इस सप्ताह में मैंने कितनी भूलें की हैं। अगले सप्ताह में इन भूलों की पुनरावृत्ति नहीं करूंगा / इस प्रकार डायरी के द्वारा उसने जीवन के दुर्गुगों को धीरे-धीरे निकाल दिया था और एक महान सदगुणी चिन्तक बन गया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org