________________ षष्ठाध्ययन : प्रत्याख्यान] [119 भावार्थ-दिवसचरम का (अथवा भवचरम का) व्रत ग्रहण करता है, फलतः अशन, पान, खादिम और स्वादिम चारों प्रकार के प्राहार का त्याग करता हूँ। अनाभोग, सहसागार, महत्तराकार और सर्वसमाधिप्रत्ययाकार, उक्त चार आगारों के सिवाय पाहार का त्याग करता हूँ। विवेचन--यह चरमप्रत्याख्यान-सूत्र है। 'चरम' का अर्थ 'अन्तिम' है। वह दो प्रकार का है-दिवस का अन्तिम भाग और भव अर्थात् प्रायु का अन्तिम भाग / सूर्य अस्त होने से पहले ही दूसरे दिन सूर्योदय तक के लिए चारों अथवा तीनों आहारों का त्याग करना, दिवसचरमप्रत्याख्यान है। भवचरमप्रत्याख्यान का अर्थ है—जब साधक को यह निश्चय हो जाए कि आयु थोड़ी ही शेष है तो यावज्जीवन के लिए चारों या तीनों प्रकार के ग्राहार का त्याग कर दे और संथारा ग्रहण करके संयम की आराधना करे। भवचरम का प्रत्याख्यान, जीवन भर की संयमसाधना सम्बन्धी सफलता का उज्ज्वल प्रतीक है। 'भवचरम' का प्रत्याख्यान करना हो तो दिवसचरिम' के स्थान पर 'भवचरिमं' बोलना चाहिए / शेष पाठ दिवसचरिम के समान ही है / मुनि के लिए जीवनपर्यन्त त्रिविधं त्रिविधेन रात्रिभोजन का त्याग होता है / अतः उनको दिवसचरम के द्वारा शेष दिन के भोजन का त्याग होता है और रात्रिभोजन-त्याग का अनुवादकत्वेन स्मरण हो जाता है। रात्रिभोजन-त्यागी गृहस्थों के लिए भी यही बात है। जिनको रात्रिभोजन का त्याग नहीं है, उनको दिवसचरम के द्वारा शेष दिन और रात्रि के लिए भोजन का त्याग हो जाता है। 6. अभिग्रह-सूत्र अभिग्गहं पच्चक्खामि चउन्विहं पि प्राहारं असणं, पाणं, खाइम, साइमं / अन्नत्थाणाभोगेणं, सहसागारेणं महत्तरागारेणं, सब्बसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि / भावार्थ-मैं अभिग्रह का व्रत ग्रहण करता हूँ, अतएव अशन, पान, खादिम, स्वादिम चारों ही प्रकार के आहार का (संकल्पित समय तक) त्याग करता हूँ। अनाभोग, सहसाकार, महत्तराकार और सर्वसमाधिप्रत्ययाकार इन चार आगारों के सिवाय अभिग्रहपूर्ति तक चारों प्रकार के आहार का त्याग करता हूँ / विवेचन--उपवास आदि के बाद अथवा विना उपवास आदि के भी अपने मन में निश्चित प्रतिज्ञा कर लेना कि अमुक बातों के मिलने पर ही पारणा अर्थात पाहार ग्रहण करूंगा, अन्यथा व्रत, बेला, आदि संकल्पित दिनों की अवधि तक पाहार ग्रहण नहीं करूंगा / इस प्रकार की प्रतिज्ञा को 'अभिग्रह' कहते हैं। ___अभिग्रह में जो बातें धारण करनी हों, उन्हें मन में निश्चय कर लेने के बाद ही उपयुक्त पाठ के द्वारा प्रत्याख्यान करना चाहिये। अभिग्रह की प्रतिज्ञा कठिन होती है। धीर एवं वीर साधक ही अभिग्रह का पालन कर सकते हैं / जैन इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि एक साधु ने सिंह केसरिया मोदकों का अभिग्रह कर लिया था और वह अभिग्रह जब पूरा न हुआ तो पागल होकर रात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org