________________ षष्ठाध्ययन : प्रत्याख्यान [117 आयंबिल में आठ आगार माने गए हैं / आठ में से पांच आगार तो पूर्व प्रत्याख्यानों के समान ही हैं, नवीन तीन आगार इस प्रकार हैं 1. लेपालेप-प्राचाम्लव्रत में ग्रहण न करने योग्य शाक तथा घृत आदि विकृति से यदि पात्र अथवा हाथ आदि लिप्त हो और दाता गहस्थ यदि उसे पोंछकर उसके द्वारा आचाम्ल-योग्य भोजन बहराए तो ग्रहण कर लेने पर व्रत भंग नहीं होता है / __ 'लेपालेप' शब्द 'लेप' और 'अलेप' मिलकर समस्त होकर बना है / लेप का अर्थ घृतादि से पहले लिप्त होना है / अलेप का अर्थ है बाद में उसको पोंछकर अलिप्त कर देना / पोंछ देने पर भी विकृति का कुछ अंश लिप्त रहता ही है / अतः प्राचाम्ल में लेपालेप का आगार रखा जाता है / 'लेपश्च अलेपश्च लेपालेपं तस्मादन्यत्र, भाजने विकृत्याद्यवयवसद्भावेऽपि न-भङ्ग इत्यर्थः / ' -प्रवचनसारोद्धारवृत्ति 2. उत्क्षिप्त-विवेक-शुष्क ओदन एवं रोटी आदि पर गुड़ तथा शक्कर आदि अद्रव-सूखी विकृति पहले से रखी हो, प्राचाम्लव्रतधारी मुनि को यदि कोई वह विकृति उठाकर रोटी आदि देना चाहे तो ग्रहण की जा सकती है / उत्क्षिप्त का अर्थ उठाना है और विवेक का अर्थ है हटाना-उठाने के बाद उसका न लगा रहना। 3. गृहस्थसंसृष्ट—घृत अथवा तैल आदि विकृति से छोंके हुए कुल्माष आदि लेना गृहस्थसंसृष्ट प्रागार है / उक्त आगार में यह ध्यान रखने की बात है कि यदि विकृति का अंश स्वल्प हो, तब तो व्रत भंग नहीं होता, परन्तु विकृति यदि अधिक मात्रा में हो तो वह ग्रहण कर लेने से व्रत भंग का निमित्त बनती है। कुछ प्राचार्यों की मान्यता है कि लेपालेप, उत्क्षिप्त-विवेक, गृहस्थसंसृष्ट और पारिष्ठापनिकागार—ये चार प्रागार साधु के लिए ही हैं, गृहस्थ के लिए नहीं / 7. अभक्तार्थ-उपवास-सूत्र उग्गए सूरे, अभत्तठें पच्चक्खामि, चउव्विहं पि आहारं-असणं, पाणं, खाइम, साइमं / अन्नत्थऽणाभोगेणं, सहसागारेणं पारिद्वावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि / भावार्थ—सूर्योदय से लेकर अभक्तार्थ--उपवास ग्रहण करता हूँ, फलतः अशन, पान, खादिम, स्वादिम, चारों ही प्रकार के आहार का त्याग करता हूँ। अनाभोग, सहसाकार, पारिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार, सर्वसमाधिप्रत्ययाकार-उक्त पांच आगारों के सिवाय सब प्रकार के आहार का त्याग करता हूँ। विवेचन–अभक्तार्थ-भक्त का अर्थ भोजन है / 'अर्थ' का अर्थ 'प्रयोजन' है / 'अ' का अर्थ 'नहीं' है। तीनों मिलाकर अर्थ होता है-भक्त का प्रयोजन नहीं है जिस व्रत में वह, अर्थात् उपवास / 'न विद्यते भक्तार्थो यस्मिन् प्रत्याख्याने सोऽभक्तार्थः स उपवासः। -श्राद्धप्रतिक्रमणवृत्ति, देवेन्द्र कृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org