SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 102] [आवश्यकसूत्र अधोदिशा और तिर्यदिशा का जो परिमाण किया है उसका उल्लंघन किया हो, क्षेत्र को बढ़ाया हो, क्षेत्रपरिमाण की सीमा में संदेह होने पर आगे चला होऊं तो मैं उसकी आलोचना करता हूँ। मेरे वे सब पाप मिथ्या हों। ऊंची, नीची, तिरछी दिशाओं के उल्लंघन को यहाँ अतिचार कहा है। इसका तात्पर्य यह है कि मर्यादा की हुई भूमि से बाहर जाने की इच्छा कर रहा है लेकिन बाहर गया नहीं है तब तक अतिचार है, बाहर चले जाने पर अनाचार है / 7. उपभोग-परिभोगपरिमाणवत के अतिचार सातवां व्रत --उवभोग-परिभोगविहिं पच्चक्खायमाणे-१. उल्लणियाविहि, 2. दंतविहि, 3. फल विहि, 4. अभंगणविहि, 5. उवट्टणविहि, 6. मज्जणविहि, 7. वत्थविहि, 8. विलेवणविहि, 6. पुष्कविहि, 10. आभरणविहि, 11. धूवविहि, 12. पेज्जबिहि, 13. भक्षणविहि, 14. प्रोदणविहि, 15. सूपविहि, 16. विगविहि, 17. सागविहि, 18. महुरविहि, 19. जोमणविहि, 20. पाणोप्रविहि, 21. मुखवासविहि, 22. वाहणविहि, 23. उवाहणविहि, * 24. सयणविहि, 25. सचित्तविहि, 26. दवविहि, इत्यादि का यथापरिमाण किया है, इसके उपरान्त उवभोगपरिभोग वस्तु को भोगनिमित्त से भोगने का पच्चक्खाण, जावज्जीवाए, एगविहं तिविहेणं न करेमि मनसा, वयसा, कायसा एवं सातवां उवभोग-परिभोग दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-भोयणाओ य, कम्मो य। भोयणाओ समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियन्वा न समायरियव्वा, तं जहा ते आलोउं-सचिताहारे, सचित्तपडिबद्धाहारे, अप्पउलिओसहिभक्षणया, दुप्पउलिओसहिभक्खणया, तुच्छोसहिभक्खणया / कम्मो य णं समणोवासएण पण्णरस कम्मादाणाइं जाणियव्वाईन समायरियव्वाई, तं जहा ते आलोउं इंगालकम्मे, वणकम्मे, साडीकम्मे, भाडोकम्मे, फोडोकम्मे, दंतवाणिज्जे, लक्खवाणिज्जे, रसवाणिज्जे, केसवाणिज्जे, विसवाणिज्जे, जंतपोलणकम्मे, निल्लंछणकम्मे, दवग्गिदावणया, सरदहतलायसोसणया, असईजणपोसणया, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। भावार्थ-मैंने शरीर पोंछने के अंगोछे आदि वस्त्र का, दातीन करने का, आंवला आदि फल से बाल धोने का, तेल आदि की मालिश करने का, उबटन करने का, स्नान करने के जल का, वस्त्र पहनने का, चन्दनादि का लेपन करने का, पुष्प सूघने का, आभूषण पहनने का, धूप जलाने का, दूध आदि पीने का, चावल-गेहूं आदि का, मूग आदि की दाल का, विगय (दूध, दही, घो, गुड़ आदि) का, शाक-भाजी का, मधुर रस का, जीमने का, पीने के पानी का, इलायची-लोग इत्यादि मुख को सुगन्धित करने वाली वस्तुओं का, घोड़ा, हाथी, रथ आदि सवारी का, जूते आदि पहनने का, शय्या-पलंग आदि का, सचित्त वस्तु के सेवन का तथा इनसे बचे हए बाकी के सभी पदार्थों का जो परिमाण किया है, उसके सिवाय उपभोग तथा परिभोग में आने वाली सब वस्तुप्रों का त्याग करता हूँ। उपभोग-परिभोग दो प्रकार का है-भोजन (भोग्य पदार्थ) सम्बन्धी और कर्म (जिन व्यापारों से भोग्य पदार्थ को प्राप्ति होती है उन वाणिज्य) सम्बन्धी। भोजन सम्बन्धी उपभोग-परिभोग के पांच और कर्म सम्बन्धी उपभोग-परिभोग के पन्द्रह, इस तरह इस व्रत के कुल बीस अतिचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy