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________________ बारह व्रतों के अतिचारों का प्रतिक्रमण 1. अहिंसाणुव्रत के अतिचार पहला अणुवत-थूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, त्रस जीव बेइन्दिय, तेइन्दिय, चउरिन्दिय, पंचिदिय, जान के पहचान के संकल्प करके उसमें स्व सम्बन्धी शरीर के भीतर में पोडाकारी, सापराधी को छोड़कर निरपराधो को आकुट्टो (हनने) को बुद्धि से हनने का पच्चक्खाण जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसा, कायसा / ऐसे पहले स्थूल प्राणातिपात वेरमण व्रत के पंच अइयारा पेयाला जाणियव्वा न समायरियन्वा, तं जहा ते आलोउं-बंधे, वहे, छविच्छेए, अइभारे, भत्तपाणविच्छेह, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं / भावार्थ-श्रावक के व्रत बारह हैं, उनमें पांच अणुव्रत मूल और सात उत्तर गुण कहलाते हैं / गृहीत व्रतों का देशतः उल्लंघन अतिचार कहलाता है / प्रत्येक व्रत के पांच-पांच अतिचार हैं। उनमें यहाँ अहिंसाणुव्रत के पांच अतिचारों की शुद्धि का विधान किया गया है। मैं स्व, सम्बन्धी (अपने और अपने संबंधी जनों) के शरीर में पीडाकारी अपराधी जीवों को छोड़कर द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय त्रस जीवों को हिंसा संकल्प करके मन, वचन और काया से न करूंगा और न कराऊंगा / मैंने किसी जीव को यदि बन्धन से बांधा हो, चाबुक, लाठी आदि से मारा हो, पीटा हो, किसी जीव के चर्म का छेदन किया हो, अधिक भार लादा हो तथा अन्न-पानी का विच्छेद किया हो तो वे सब पाप निष्फल हों। तात्पर्य यह है कि गृहस्थ श्रावक अहिंसाणुव्रत में निरपराध त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा का ही त्याग करता है। वह स्थावर जीवों की हिंसा का त्यागी नहीं होता। किन्तु उनकी भी निरर्थक हिंसा का त्याग करता है। त्रस जीवों में भी अपराधी की हिंसा का नहीं, केवल निरपराध जीवों की हिंसा त्यागता है और निरपराधों की भी संकल्पी हिंसा का—'मैं इसे मार डालू' इस प्रकार की बुद्धि से घात करने का त्याग करता है। कृषि, गृह-निर्माण, व्यवसाय आदि में निरपराध त्रस जीवों का भी हनन होता है, तथापि वह आरंभी हिसा है, संकल्पी नहीं / अतएव गहस्थ श्रावक उसका त्यागी नहीं। इस कारण उसका पहला व्रत स्थल प्राणातिपातविरमण कहलाता है / यह दो करण और तीन योग से स्वीकार किया जाता है। 2. मृषावादविरमणवत के अतिचार दूजा अणुव्रत-थूलाओ मुसावायानो वेरमणं, कन्नालीए, गोवालीए, भोमालीए, णासावहारो (थापणमोसो), कूडसक्खिज्जे (कूडी साख) इत्यादिक मोटा झूठ बोलने का पच्चक्खाण, जावज्जीवाए दुविहंतिविहेणं-न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसा, कायसा एवं दूजा स्थूल मृषावाद वेरमण व्रत के पंच अइयारा जाणियन्वा न समायरियव्वा, तं जहा ते आलोउं-सहसब्भक्खाणे, रहस्सब्भक्खाणे, सदारमन्तभेए, मोसोवएसे, कूडलेहकरणे, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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