________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण] स्थिर है, अरुज सभी प्रकार के बाह्याभ्यन्तर रोगों से रहित है, अनन्त है–उसका कदापि अन्त नहीं होता, अक्षत है, अर्थात् उसमें कभी कोई क्षति-न्यूनता नहीं आती, अव्यावाध है -- समस्त बाधाओं से विजित है और अपुनरावृत्ति है, अर्थात् एक बार सिद्धि प्राप्त हो जाने पर फिर कभी वहाँ . से वापिस नहीं लौटना पड़ता है यहाँ विचारणीय है कि अनन्त और अक्षत (अक्षय) विशेषणों का प्रयोग करने के पश्चात् 'अपुनरावृत्ति' विशेषण के प्रयोग की क्यों आवश्यकता हुई ? समाधान यह है कि कतिपय दार्शनिकों की ऐसी मान्यता है कि मुक्तात्मा जब अपने तीर्थ की अवहेलना होते देखते हैं तो उसके रक्षण के लिए मोक्ष को छोड़कर पुनः संसार में आ जाते हैं / इस मान्यता को भ्रान्त बतलाने के लिए इस विशेषण का प्रयोग किया गया है / जैसे बीज के दग्ध हो जाने पर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं होता, उसी प्रकार कर्मबीज के भस्म हो जाने पर भव-अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकता / तात्पर्य यह है कि पूर्ववर्ती कर्म ही नवीन कर्म को उत्पन्न करता है, एक बार कर्म का समूल नाश हो जाने पर नवीन कर्मों का उद्भव संभव नहीं है और कर्म के अभाव में पुन: संसार में जन्म होना संभव नहीं। वस्तुतः मोक्ष-पद सादि और अनन्त है / इस आशय को व्यक्त करने के लिए 'अपुनरावृत्ति' पद का प्रयोग किया गया है। _ 'नमोत्थण' पाठ दो बार पढ़ा जाता है-अरिहन्त भगवन्तों को लक्ष्य करके और सिद्ध भगवन्तों को लक्ष्य करके / जब अरिहन्तों को लक्ष्य करके पढ़ा जाता है तो 'ठाणं संपाविउकामाणं' ऐसा बोला जाता है और जब सिद्ध भगवन्तों की स्तुति की जाती है तो 'ठाणं संपत्ताणं' ऐसा पाठ बोला जाता है। दोनों पाठों के अर्थ में अन्तर इस प्रकार है-'ठाणं संपाविउकामाणं' अर्थात् मुक्ति पद को प्राप्त करने का लक्ष्य रखने वाले--ध्येय वाले। 'ठाणं संपत्ताण' का अर्थ है-मुक्ति पद को जो प्राप्त कर चुके हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org