________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण] यद्यपि स्थान तो इससे भी अधिक हैं, परन्तु वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान के रूप में जितने भी स्थान परस्पर समान होते हैं, उन सबका मिलकर एक ही स्थान माना जाता है। पृथ्वीकायिक जीवों के मूल भेद 350 हैं। पाँच वर्ण से उक्त भेदों को गुणा करने से 1750 भेद होते हैं / पुनः दो गन्ध से गुणा करने पर 3500, पुन: पांच रस से गुणा करने पर 17500, पुनः आठ स्पर्श से गुणा करने पर 1,40,000, पुनः पांच संस्थान से गुणा करने पर कुल सात लाख भेद होते हैं। पृथ्वीकाय के समान ही जलकाय, तेजस्काय, वायुकाय के भी प्रत्येक के मूल भेद 350 हैं। उनको पांच वर्ण आदि से गुणा करने पर प्रत्येक की सात लाख योनियां हो जाती हैं / प्रत्येक वनस्पति के मूल भेद 500 हैं / उनको पांच वर्ण आदि से गुणा करने से कुल दस लाख योनियां हो जाती हैं / कन्दमूल की जाति के मूल भेद 700 हैं, अतः उनको पांच वर्ण आदि से गुणा करने पर कुल 14,00,000 योनियां होती हैं। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय रूप विकलत्रय के प्रत्येक के मूल भेद 100-100 हैं / उनको पांच वर्ण आदि से गुणा करने पर प्रत्येक की कुल चार-चार लाख योनियां होती हैं / मनुष्य जाति के मूल भेद 700 हैं, अतः पाँच वर्ण आदि से गुणा करने से मनुष्य की कुल 14,00,000 योनियां हो जाती हैं। कुल कोडी खमाने का पाठ पृथ्वीकाय के बारह लाख कुलकोडी, अप्काय के सात लाख कुलकोडी, तेजस्काय के तीन लाख कुलकोडी, वायुकाय के सात लाख कुलकोडी, वनस्पतिकाय के अट्ठाईस लाख कुलकोडो, द्वीन्द्रिय के सात लाख कुलकोडी, श्रीन्द्रिय के आठ लाख कुलकोडी, चतुरिन्द्रिय के नव लाख कुलकोडी, जलचर के साढ़े बारह लाख कुलकोडी, स्थलचर के दस लाख कुलकोडी, खेचर के बारह लाख कुलकोडी, उरपरिसर्प के दस लाख कुलकोडी, भुजपरिसर्प के नव लाख कुलकोडी, नरक के पच्चीस लाख कुलकोडी, देवता के छब्बीस लाख कुलकोडी, मनुष्य के बारह लाख कुलकोडी, यों एक करोड़ साढ़े सत्तानवे लाख कुलकोडी की विराधना की हो तो देवसी सम्बन्धी तस्स मिच्छा मि दुक्कडं / प्रणिपात-सूत्र नमोत्थुणं अरिहंताणं, भगवंताणं // 1 // आइगराणं, तित्थयराणं, सयंसंबुद्धाणं // 2 // पुरिसुत्तमाणं, पुरिस-सीहाणं, पुरिसवरपुंडरीयाणं, पुरिसवरगंधहत्थीणं // 3 // लोगुत्तमाणं, लोगनाहाणं, लोगहियाणं, लोगपईवाणं, लोगपज्जोयगराणं // 4 // अभयदयाणं, चवखुदयाणं, मग्गवयाणं, सरणक्याणं, जीवक्याणं, बोहिदयाणं // 5 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org