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________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण] राग-द्वेष, अकृतज्ञता अथवा आग्रह वश मैंने जो कुछ भी कहा हो, उसके लिए मैं मन, वचन, काया से सभी से क्षमा चाहता हूँ॥ 4 // खामेमि सम्बे जीवा, सम्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सवभूएसु', वेरं मज्झ न केणइ / / एवमहं आलोइय, निदिय गरिहिय दुर्गछियं सम्म। तिविहेण पडिक्कतो, वंदामि जिणे चउव्वीसं // भावार्थ-मैंने किसी जीव का अपराध किया हो तो मैं उससे क्षमा चाहता हूँ। सभी प्राणी मुझे क्षमा करें। संसार के प्राणिमात्र से मेरी मित्रता है, मेरा किसी से वैर-विरोध नहीं है। मैं अपने पापों की आलोचना, निन्दा, गहरे और जुगुप्सा के द्वारा तीन प्रकार से अर्थात् मन, वचन और काय से प्रतिक्रमण कर, पापों से निवृत्त होकर चौबीस तीर्थंकर देवों को वन्दना करता हूँ। विवेचन-मन भावनाओं का भण्डार है। इसमें असंख्य शुभाशुभ भावनाएँ विद्यमान रहती हैं और इन शुभाशुभ भावनाओं के फलस्वरूप हर क्षण अनन्तानन्त कर्म-परमाणुओं का आत्मा के साथ बन्ध होता रहता है। शुभ भावनाओं से शुभ कर्मों का और अशुभ भावनाओं से अशुभ कर्मों का। इन बन्धनों के कारण ही आत्मा अनादि काल से चौदह राजू परिमित लोक में, चौरासी लाख जीवयोनियों में परिभ्रमण करता हुआ पौद्गलिक अस्थायी सुख-दुःखों का भोग भी करता आ रहा है। सुख को अपेक्षा आत्मा ने दुःख एवं पीड़ाएँ बहुत सहन की हैं। कोटानुकोटि जन्मों के बाद आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल, मानव जन्म, आदि दस बोलों की जीव को प्राप्ति हुई है और साथ ही वीतराग वाणी श्रवण करने का तथा संत-समागम का सुअवसर भी प्राप्त हुआ है / अब आवश्यकता है अटल आस्था के साथ कर्म और आत्मा अर्थात जड़-चेतन के स्वरूप को समझकर आत्म-उत्थान के हेतुओं को जीवन में उतारने की। आत्मकल्याण के कारणों में प्रथम हेतु क्षमा-धर्म ही है / शास्त्र का वचन है दसबिहे समणधम्मे पण्णते, तंजहा–१. खंती, 2. मुत्ती, 3. अज्जवे, 4. मद्दवे, 5. लाघवे, 6. सच्चे, 7. संयमे, 8. तवे, 6. चियाए, 10. बंभचेरवासे। -समवायांगसूत्र क्षमाश्रमण भगवान महावीर ने दस प्रकार के यतिधर्मों में सर्वप्रथम क्षमा को ही बताया है। साधक जीवन में क्षमाधर्म की अनिवार्य आवश्यकता है। क्षमा के अभाव में व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में सुख-शान्तिमय जीवन नहीं जी सकता है। वास्तव में 'क्षमा' मनुष्य का नैसर्गिक गुण है, इसे किसी भी परिस्थिति में मनुष्य को छोड़ना नहीं चाहिये। क्षमा तथा प्रेम के प्रभाव से क्रूर हृदय भी बदले जा सकते हैं / कहा भी है-- "क्षमा वशीकृतिर्लोके क्षमया कि न साध्यते ?" -सुभाषितसंचय अर्थात् क्षमा संसार में वशीकरण मंत्र है, क्षमा से क्या सिद्ध नहीं होता? सबसे बड़ा तप क्षमा ही है / 'शान्तितुल्यं तपो नास्ति'-क्षमा के बराबर दूसरा तप नहीं है / 1. सव्व जीवेसु, इति जिनदास महत्तराः / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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