________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण] 15. विनय--अरिहन्तादि सम्बन्धी दश प्रकार का विनय करना / 16. धैर्य-अनुकूल प्रतिकूल परिषह आने पर धैर्य रखना। 17. संवेग-सांसारिक भोगों से भय अथवा मोक्षाभिलाषा होना। 18. मायाचार न करना। 19. सदनुष्ठान में निरत रहना / 20. संवर—पापाश्रव को रोकना। 21. दोषों की शुद्धि करना / 22. काम-भोगों से विरक्ति / 23. मूलगुणों का शुद्ध पालन / 24. उत्तरगुणों का शुद्ध पालन / 25. व्युत्सर्ग-शारीरिक ममता न करना / 26. प्रमाद न करना। 27. प्रतिक्षण संयम-यात्रा में सावधान रहना / 28. शुभध्यान-धर्म-शुक्लध्यान-परायण होना / 29. मारणान्तिक वेदना होने पर भी अधीर न होना / 30. संग का परित्याग करना / 31. कृत दोषों का प्रायश्चित्त करना। 32. मरणपर्यन्त ज्ञानादि की आराधना करना। विवेचन--इन बत्तीस योगसंग्रहों का सम्यक् आराधन नहीं होने से जो कोई अतिचार किया गया हो तो मैं उससे निवृत्त होता हूँ। मन, वचन एवं काय के व्यापार को योग कहते हैं / योग के दो भेद हैं-शुभ योग एवं अशुभ योग / शुभ योग में प्रवृत्ति और अशुभ योग से निवृत्ति ही संयम है / प्रस्तुत सूत्र में शुभ प्रवृत्ति रूप योग ही ग्राह्य है / उसी का संग्रह संयमी जीवन की पवित्रता को अक्षुण्ण बनाए रख सकता है। "युज्यन्ते इति योगाः मनोवाक्कायव्यापाराः, ते चेह प्रशस्ता एक विवक्षिताः।" -ग्राचार्य अभयदेव समवायांग टीका तेतीस प्राशातना जैनाचार्यों ने अाशातना शब्द की निरुक्ति बड़ी सुन्दर की है / सम्यग्दर्शन आदि आध्यात्मिक गुणों की प्राप्ति को 'पाय' कहते हैं और शातना का अर्थ है खण्डन / देव, गुरु, शास्त्र आदि का अपमान करने से सम्यग्दर्शन आदि सद्गुणों की शातना-खण्डना होती है / 'आयः-सम्यगदर्शनाद्यवाप्तिलक्षणस्तस्य शातना-खण्डनं निरुक्तादाशातना।' -आचार्य अभयदेव समवायांग टीका 'प्रासातणाणामं नाणादिप्रायस्स सातणा / यकारलोपं कृत्वा आशातना भवति / ' -प्राचार्य जिनदास, आवश्यकचूर्णि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org