________________ 5. कायोत्सर्ग कायोत्सर्ग आवश्यक सूत्र का पांचवां अध्ययन है तथा ग्यारहवां तप है। इसका अर्थ है---देह के प्रति ममत्व त्यागना / जब तक देह के प्रति ममत्वभाव है तब तक साधक जीवन के मैदान में दृढ़तापूर्वक आगे नहीं बढ़ सकता। अत: जैन माधना-पद्धति में कायोत्सर्ग का अद्भुत, मौलिक एवं विलक्षण महत्त्वपूर्ण स्थान है। अनुयोगद्वार में कायोत्सर्ग को 'बणचिकित्सा कहा है। सावधान रहने पर भी प्रमाद आदि के कारण साधना में दोष लग जाते हैं। उन दोष रूपी जख्मों को ठीक करने के लिये कायोत्सर्ग एक मरहम है, जो अतिचार रूपी घावों को ठीक कर देता है। संयमी जीवन को अधिकाधिक परिष्कृत करने के लिए, प्रायश्चित्त करने के लिये, अपने आपको विशुद्ध बनाने के लिए, प्रात्मा को माया, मिथ्यात्व और निदान शल्य से मुक्त करने के लिए, पाप कर्मों के निर्घात के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है। कायोत्सर्ग के विषय में शिष्य प्रश्न करता हैप्रश्न--काउसग्गेणं भंते ! जीवे कि जणयइ? उत्तर-काउसग्गेणं तीय-पडुप्पन्न पायच्छित्त विसोहेइ, विसुद्धपायच्छिते य जीवे नियुहियए ओहरियमारुम्व भारवहे पसस्थज्माणोवगए सुहं सुहेणं विहरइ / ' प्र०--भगवन् ! कायोत्सर्ग से प्रात्मा क्या फल प्राप्त करता है ? उ०-कायोत्सर्ग के द्वारा प्रात्मा भूतकाल और वर्तमान काल के अतिचारों से विशुद्ध बनता है / अतिचारों से शुद्ध होने के बाद साधक के मन में इतना अानन्द का अनुभव होता है, जितना कि एक मजदूर के मस्तक पर से वजन हट जाने पर उसे होता है। 6. प्रत्याख्यान प्रत्याख्यान अावश्यकसूत्र का छठा अध्ययन है। भूतकाल के अतिचारों की आलोचना के बाद याधक प्रायश्चित्त रूप में कायोत्सर्ग करता है और अतीत के दोषों से मुक्त हो जाता है। परन्तु भविष्य के दोषों को रोकने के लिए प्रत्याख्यान करना आवश्यक है / साधक के जीवन में प्रत्याख्यान का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। क्योंकि इस विराट् विश्व में इतने अधिक पदार्थ हैं जिनकी परिगणना करना भी असंभव है / चाहे कितनी भी लम्बी उम्र क्यों न हो फिर भी एक मनुष्य विश्व की सभी वस्तुओं का उपभोग नहीं कर सकता / लेकिन मानव की इच्छाएं तो आकाश की भांति अनन्त हैं। एक के बाद दूसरे को भोगने की इच्छा होती है, जिसके कारण मनुष्य के अन्तर्भानस में सदा अतृप्ति एवं अशान्ति बनी रहती है। उस अतृप्ति की आग को बुझाने का एकमात्र उपाय प्रत्याख्यान है / प्रत्याख्यान से भविष्य में लगने वाले तत्संबंधी पाप रुक जाते हैं और साधक का जीवन संयम के सुनहरे प्रकाश में जगमगाने लगता है। प्रत्याख्यान से भविष्य में आने वाली अविरति की सभी क्रियाएं रुक जाती है और साधक नियमोपनियम का सम्यक पालन करता है। प्रत्याख्यान के विषय में कहा गया है--- प्रश्न-पच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे कि जणयह ? उत्तर-पच्चक्खाणेणं आसवदाराई गिरु भइ, पच्चक्खाणेणं इच्छागिरोहं जणयई। इच्छानिरोहंगए य गं जीवे सन्यदन्वेसु विणीयतण्हे / सीईभए विहरई॥२ 1. उत्तराध्ययन सू., अ. 29, सूत्र 13 2. उत्तराध्ययन अ. 29, सुत्र. 14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org