________________ 50] [आवश्यकसूत्र ये सत्तरह असंयम समवायांगसूत्र में कहे गये हैं। प्राचार्य हरिभद्र ने आवश्यक में 'असंजमें' के स्थान में 'संजमे' का उल्लेख किया है। संजमे का अर्थ संयम है। संयम के भी उपर्युक्त ही पृथ्वीकायसंयम आदि सत्तरह भेद हैं / किसी भी असंयम का आचरण किया हो, संयम का आचरण न किया हो अथवा इनकी विपरीत श्रद्धा प्ररूपणा की हो तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं / अठारह अब्रह्मचर्य देव सम्बन्धी भोगों का मन, वचन और काय से स्वयं सेवन करना, अन्य से सेवन कराना तथा सेवन करते हुए का अनुमोदन करना। इस प्रकार नौ भेद वैक्रिय शरीर सम्बन्धी तथा मनुष्य एवं तिर्यञ्च सम्बन्धी औदारिक भोगों के भी इसी तरह नौ भेद समझ लेने चाहिये / कुल भेद मिलाकर अठारह होते हैं। ज्ञाताधर्म-कथा के 16 अध्ययन 1. मेघकुमार (उत्क्षिप्त), 2. धन्ना सार्थवाह (संघाट), 3. मयूराण्ड, 4. कूर्म, 5. शैलक, 6. तुम्बलेप, 7. रोहिणी, 8. मल्ली, 6. माकन्दी, 10. चन्द्र, 11. दावदववृक्ष, 12. उदक, 13. मण्डूक, 14. तेतलिप्रधान, 15. नन्दीफल, 16. अवरकंका, 17. आकीर्णक, 18. सुसुमा, 16. पुण्डरीक / उक्त उन्नीस उदाहरणों के भावानुसार साधुधर्म की साधना न करना अतिचार है / बीस असमाधिस्थान चित्त की एकाग्रतापूर्वक मोक्षमार्ग में स्थित होने को समाधि कहते हैं। इसके विपरीत असमाधि है / असमाधि के बीस स्थान निम्नलिखित हैं 1. दवदव-जल्दी-जल्दी चलना / 2. बिना पूजे चलना। बिना उपयोग के प्रमार्जन करना। 4. अमर्यादित शय्या और प्रासन रखना। 5. गुरुजनों का अपमान करना / 6. स्थविरों की अवहेलना करना। 7. भूत पघात--जीवों के धात का चिन्तन करना। 8. क्षण-क्षण में क्रोध करना / 6. परोक्ष में अवर्णवाद करना। 10. शंकित विषय में बार-बार निश्चयपूर्वक बोलना / 11. नित्य नया कलह करना / 12. शान्त हुए कलह को पुनः उत्तेजित करना / 13. अकाल में स्वाध्याय करना। 14. सचित्त रज-सहित हाथ आदि से भिक्षा लेना। 15. प्रहर रात बीतने के बाद जोर से बोलना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org