________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण] कायगुप्ति के चार भेद द्रव्य से शरीर की शुश्र षा न करे, क्षेत्र से समस्त लोक में, काल से जीवन पर्यन्त, भाव से सावध योग न प्रवर्ताना / शल्यसूत्र--- माया, निदान और मिथ्यादर्शन, ये तीनों दोष आगम की भाषा में शल्य कहलाते हैं। जिसके द्वारा अन्तर पीडा सालती रहती हो, कसकती रहती हो वह तीर, कांटा आ माया आदि भाव शल्य हैं / आचार्य हरिभद्र के अनुसार शल्य शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है"शल्यतेऽनेनेति शल्यम् / " आध्यात्मिक क्षेत्र में माया, निदान और मिथ्या-दर्शन को शल्य इसलिए कहा कि जिस प्रकार शरीर के किसी भाग में कांटा, कील तथा तीर आदि तीक्ष्ण वस्तु घुस जाए तो वह मनुष्य को क्षुब्ध बना देती है, उसी प्रकार अन्तर में रहा हुआ सूत्रोक्त शल्यत्रय भी साधक की अन्तरात्मा को सालता रहता है / तीनों ही शल्य तीव्र कर्म-बन्ध के हेतु हैं। 1. मायाशल्य-माया का अर्थ है कपट / माया एक तीक्ष्ण धारवाली असि है जो आपसी स्नेह-सम्बन्ध को क्षण भर में ही काट देती है। दशवकालिक सूत्र में कहा है—'माया मित्ताणि नासेइ' अर्थात् मायाचार करने से मित्रों-मैत्रीभाव का विनाश होता है। 2. निदानशल्य-धर्माचरण के सांसारिक फल की कामना करना, भोगों की लालसा रखना निदानशल्य है। 3. मिथ्यादर्शनशल्य-सत्य पर श्रद्धा न लाना एवं असत्य का कदाग्रह रखना मिथ्यादर्शनशल्य है। इस प्रकार तीनों शल्यों से होने वाले दोषों का प्रतिक्रमण करता हूँ। गौरव सूत्र एवं विराधना सूत्र प्राचार्य आदि की पदप्राप्ति रूप ऋद्धिगौरव, मधुर आदि प्रिय रस की प्राप्ति का अभिमान रूप रसगौरव तथा शारीरिक आदि सुखप्राप्ति से होने वाले अभिमान रूप सातागौरव के कारण, एवं ज्ञान की अर्थात् जिसके द्वारा जीवादि पदार्थ जाने जाएँ उस ज्ञान की विराधना, दर्शन की विराधना, चारित्र की विराधना, इन तीन विराधनाओं के कारण जो कोई अतिचार किया गया हो तो उससे मैं निवृत्त होता हूँ। गौरव का अर्थ है गुरुत्व—भारीपन / गौरव दो प्रकार का है 1. द्रव्यगौरव, 2. भावगौरव / पत्थर आदि की गुरुता द्रव्यगौरव है और अभिमान एवं लोभ के कारण होने वाला आत्मा का अशुभ भाव भावगौरव है। किसी भी प्रकार का दोष न लगाते हुए चारित्र का विशुद्ध रूप से पालन करना आराधना है और इसके विपरीत ज्ञानादि आचार का सम्यक रूप से आराधन न करना, उनमें दोष लगाना विराधना है। कषायसूत्र कोहं माणं च मायं च, लोभं च पाव-धड्ढणं / वमे चत्तारि दोसे उ, इच्छतो हियमप्पणो // –दशवै. सू. अ. 8 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org