________________ 426] [निशीथसूत्र भावना से वाचना न देने पर या कभी किसी गच्छ में योग्य वाचना देने वाला न होने पर भिक्षु को स्वयं सूत्रार्थ का अध्ययन करना नहीं कल्पता है / अथवा प्राचार्य उपाध्याय के निषेध कर देने पर हठपूर्वक वाचना ग्रहण करना भो नहीं कल्पता है / यदि किसी विशेष कारण से प्राचार्य या उपाध्याय ने मूल पाठ या अर्थ की वाचना लेने के लिए मना किया हो तो उनकी आज्ञा प्राप्त होने के बाद ही आगम की वाचना लेनी चाहिए। जब तक प्राचार्यादि की आज्ञा न मिले तब तक योग्यता की प्राप्ति के लिए तप संयम में वृद्धि करनी चाहिए। यदि प्राचार्यादि ने द्वेष भाव से निषेध किया हो तो उन्हें विनय के द्वारा प्रसन्न करने का प्रयत्न करना चाहिए अथवा गच्छ के अन्य गीतार्थ गणावच्छेदक आदि से निवेदन करना चाहिए / किन्तु जब तक आज्ञा न मिले तब तक प्रविधि से श्रुत ग्रहण नहीं करना चाहिए। सामान्य या विशेष स्थिति में भी अदत्त श्रुत ग्रहण करने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त तो पाता हो है। सूत्र में "गिर" शब्द से जिनवाणी को ही आगम माना गया है, तथा प्राचार्य-उपाध्याय दोनों का निर्देश इसलिए किया गया है कि दोनों वाचना देने वाले होते हैं। उपाध्याय मूल सूत्रों की वाचना देने वाले होते हैं एवं आचार्य सूत्रार्थ-परमार्थ की वाचना देने वाले होते हैं। वर्तमान में कई गच्छ और कई सम्प्रदाय ऐसे हैं जिनमें कोई प्राचार्य एवं उपाध्याय ही नहीं हैं और जो हैं उनमें बहुश्रुत एवं उत्सर्ग अपवादों के विशेषज्ञ अल्प हैं। वे भी सामाजिक व्यवस्थाओं में व्यस्त रहने से योग्य शिष्यों को आगमों की नियमित वाचना दे नहीं पाते। इसलिए योग्य शिष्यों को गुरुदेवों से आज्ञा प्राप्त करके प्रागमों का वाचन-चिन्तन-मनन करना श्रेयस्कर है / क्योंकि प्रागमों के अाधुनिक प्रकाशनों में शब्दार्थ, भावार्थ एवं विस्तृत विवेचन होते हैं इसलिए उन सूत्रों का स्वतः अध्ययन करने से विशेष लाभ ही संभव है। अतः गुरुदेवों से प्राज्ञा प्राप्त करके अध्ययन क्रम के अनुसार सूत्रों का वाचन विवेकपूर्वक करना चाहिए। गुरुदेवों की आज्ञा लेने के बाद स्वत: वांचन करने पर सूत्रोक्त "अदत्त वाचना" का प्रायश्चित्त भी नहीं आता है एवं श्रुत परिचय तथा स्वाध्याय का लाभ भी हो जाता है / गृहस्थ के साथ वाचना के आदान-प्रदान का प्रायश्चित्त 24. जे भिक्खू अण्णउत्यियं वा गारत्थियं वा सज्झायं वाएइ, वाएंतं वा साइज्जइ / 25. जे भिक्ख अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस वा वायणं पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा साइज्जइ। 24. जो भिक्षु अन्यतीथिक या गृहस्थ को वाचना देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। 25. जो भिक्षु अन्यतोथिंक से या गृहस्थ से वाचना लेता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है / [उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है / ] विवेचनजिस प्रकार दूसरे उद्देशक में गृहस्थ एवं अन्यतोर्थिक शब्द का 'भिक्षाचर गृहस्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org