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________________ उन्नीसवाँ उद्देशक] [423 क्रमशः योग्यता की वृद्धि भी होती है / अतः उन सूत्रों में भी अपेक्षा से वाचना के योग्यायोग्य का ही विषय है। प्रस्तुत चार सूत्रों में भी "पात्र" और "व्यक्त" शब्द से दो प्रकार की योग्यता सचित की गई है। 1. पात्र--जिसने कालिकसूत्रों की वाचना ग्रहण करने को पूर्ण योग्यता प्राप्त करली है अर्थात् जो वाचना के योग्य गुणों से युक्त है उसे “पात्र" कहा गया है और जो वाचना के योग्य गुणों से युक्त नहीं है उसे "अपात्र" कहा गया है / बृहत्कल्प सूत्र के चतुर्थ उद्देशक में तीन गुणों से युक्त को वाचना देने का विधान है और तीन अवगुण वाले को वाचना देने का निषेध हैतीन गुण तीन अवगुण 1. विनीत। 1. अविनीत 2. विगयों का त्याग करने वाला। 2. विगय त्याग नहीं करने वाला। 3. कषाय क्लेश को शीघ्र उपशान्त कर 3. कषाय क्लेश को उपशान्त नहीं करने वाला। देने वाला। ___ इन तीन गुणों में प्रथम विनय गुण अत्यन्त विशाल है एवं धर्म का मूल भी कहा गया है। फिर भी कम से कम वाचनादाता के प्रति पूर्ण श्रद्धा भक्ति निष्ठा हो, उनके प्रति विनय का व्यवहार हो, उनसे वाचना ग्रहण करने में पूर्ण रुचि एवं प्रसन्नता हो तथा उनकी आज्ञा शिरोधार्य करते हुए अध्ययन करने का विवेक हो, ऐसा विनयी शिष्य वाचना के योग्य होता है। नवदीक्षित शिष्यों को सर्वप्रथम प्रवर्तक मुनिराज संयम सम्बन्धी समस्त प्रवत्तियों का ज्ञान, विनय व्यवहार एवं सामान्य ज्ञान कराते हैं। स्थविर मुनिवर उन्हें संयम गुणों से स्थिर करते हैं / इस प्रकार प्रारम्भिक शिक्षा के बाद जो उपर्युक्त योग्यताप्राप्त पात्र होते हैं उन्हें उपाध्याय के नेतृत्व में अध्ययन करने के लिए नियुक्त किया जाता है। जो योग्यता प्राप्त नहीं कर पाते हैं वे प्रवर्तक एवं स्थविर के नेतृत्व में क्रमशः ज्ञान ध्यान की वृद्धि करते रहते हैं। उपाध्याय के पास शुद्ध उच्चारण एवं घोषशुद्धि के साथ मूल पाठ का अध्ययन पूर्ण किया जाता है, साथ ही प्राचार्य उन्हें योग्यतानुसार अर्थ-परमार्थयुक्त सूत्रार्थ की वाचना देते हैं। व्यवहार भाष्य उद्देशक 1 में बताया गया है कि प्रत्येक गच्छ में पांच पदवीधरों का होना आवश्यक है, जिनमें चार उपरिवणित एवं पांचवें गणावच्छेदक होते हैं। ये गणावच्छेदक मण सम्बन्धी सभी प्रकार की सेवा आदि की व्यवस्था करने वाले होते हैं तथा प्राचार्य के महान् सहयोगी होते हैं। इन पाँच पदवीधरों से युक्त गच्छवासी साधुनों के ज्ञान दर्शन चारित्रादि के आराधन की समुचित व्यवस्था हो सकती है / अतः संयम समाधि के इच्छुक भिक्षु को ऐसी व्यवस्था से युक्त गच्छ में ही रहने की प्रेरणा करते हुए वहाँ भाष्य में विस्तार से उदाहरण सहित समझाया गया है। अपात्र के लक्षणों को संग्राहक भाष्य-गाथा इस प्रकार है तितिणिए चलचित्ते, गाणंगणिए य दुब्बल चरित्ते / आयरिय परिभासी, वामावट्टे ये पिसुणे य। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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