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________________ उन्नीसवां उद्देशक [421 प्राचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध के नव अध्ययनों में संयम में दृढ़ता, वैराग्य एवं श्रद्धा, परीषहजय प्रादि के विचारों को प्रोत्साहन देने वाले उपदेश का वर्णन है / ब्रह्मचर्य संयम का ही एक पर्यायवाची शब्द है अथवा यह संयम का मुख्य अंग है / इसलिए प्रथम श्रुतस्कन्ध का "नव बंभचेर" नाम प्रसिद्ध है / एक देश से सम्पूर्ण का ग्रहण हो जाता है। अतः चर्णिकार ने कहा है-"नव बंभचेर गहणेण सव्यो आयारो गहितो अहवा सम्वो चरणाणुओगो" अर्थात् नव-ब्रह्मचर्य के कथन से सम्पूर्ण प्राचारांग सूत्र अथवा सम्पूर्ण चरणानुयोग (प्राचार शास्त्र को) ग्रहण कर लेना चाहिए। "उत्तमश्रुत" से छेदसूत्र तथा दृष्टिवाद सूत्र का निर्देश भाष्य गा. 6184 में किया गया है। उत्सर्ग, अपवाद कल्पों का तथा प्रायश्चित्त एवं संघ व्यवस्था का वर्णन होने से छेदसूत्रों को "उत्तमश्रुत" की संज्ञा दी गई है / चारों अनुयोगों का तथा नय और प्रमाण आदि से द्रव्यों का सूक्ष्मतम वर्णन होने से तथा अत्यन्त विशाल होने से दृष्टिवाद को भी उत्तमश्रुत कहा जाता है / १७वें सूत्र का आशय यह है कि संयम के प्राचार का ज्ञान एवं पालन करने में दृढता हो जाने पर विशेष योग्यता वाले भिक्षु को "उत्तमश्रुत" की वाचना दी जाती है। अथवा १६वें सूत्र में यह १७वां अपवाद सूत्र है ऐसा भी समझ सकते हैं, क्योंकि १७वें सूत्र में "उत्तमसुयं" के स्थान पर "उवरिमसुयं" पाठ प्रायः सभी प्रतियों में उपलब्ध होता है। इस अपेक्षा से दोनों सूत्रों का सम्मिलित भावार्थ यह होता है कि किसी भी सूत्र आदि को व्युत्क्रम से पढ़ाने पर प्रायश्चित्त आता है, किन्तु विशेष कारणों से आगे के सूत्रों की वांचना करना अत्यावश्यक हो तो कम से कम आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध का अध्ययन तो अवश्य करा ही देना चाहिए और उसका अध्ययन कराये बिना अपवाद रूप से भी आगे के सूत्र पढ़ाने पर प्रायश्चित्त प्राता है। इस अपवाद स्थिति में सूत्रार्थ-विच्छेद या वाचनादाता का समयाभाव आदि अनेक कारण हो सकते हैं। किन्तु बिना किसी अपवादिक परिस्थिति के किसी भी क्रम को भंग करने पर वाचनादाता को प्रायश्चित्त आता है / व्युत्क्रम से वाचना देने में होने वाले दोष 1. पूर्व के विषय को समझे बिना आगे का विषय समझ में नहीं आना, 2. उत्सर्ग-अपवाद का विपरीत परिणमन होना, 3. आगे का अध्ययन करने के बाद पूर्व का अध्ययन नहीं करना, 4. पूर्ण योग्यता बिना बहश्रत आदि कहलाना, इत्यादि / अतः आगमोक्त क्रम से ही सभी सूत्रों की वाचना देना चाहिए। इन सूत्रों में तथा आगे भी पाने वाले अनेक सूत्रों में, वाचना देने वाले को प्रायश्चित्त कहा है, वाचना ग्रहण करने वाले के प्रायश्चित्त का यहाँ विधान नहीं है / इसका कारण यह है कि यह वाचना देने वाले की जिम्मेदारी का ही विषय है कि किसे क्या वाचना देना? सूत्रों में अर्थ का अध्ययन कराने के लिए "वाचना'' शब्द का प्रयोग किया गया है, और मूल आगम का अध्ययन कराने के लिए "उद्देश, समुद्देश" शब्दों का प्रयोग किया गया है / किन्तु यहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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