________________ उन्नीसवां उद्देशक] 3. विकथाओं तथा अन्य प्रमादों में संयम का अमूल्य समय व्यतीत होता है। 4. संयम गुणों का नाश होता है। 5. स्वाध्याय-तप और निर्जरा के लाभ से वंचित होना पड़ता है। परिणामतः भव परम्परा नष्ट नहीं हो सकती है। अतः स्वाध्याय करना भिक्षु का परम कर्तव्य समझना चाहिए। स्वाध्याय करने से होने वाले लाभ 1. स्वाध्याय करने से विपुल निर्जरा होती है / 2. श्रुतज्ञान स्थिर एवं समृद्ध होता है। 3. श्रद्धा, वैराग्य, संयम एवं तप में रुचि बढ़तो है / 4. अात्म गुणों की पुष्टि होती है / 5. मन एवं इन्द्रिय निग्रह में सफलता मिलती है / 6. स्वाध्याय धर्म ध्यान का आलम्बन कहा गया है एवं इससे चित्त की एकाग्रता सिद्ध होती है / फलतः धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान की प्राप्ति होती है। स्वाध्याय के लिए प्रेरक आगम वाक्य 1. सज्झायम्मि रओ सया-भिक्षु सदा स्वाध्याय में रत रहे / -दशवै. अ. 8, गा. 4 2. भोच्चा सज्झायरए जे स भिक्खू-प्राप्त निर्दोष आहार करके जो स्वाध्याय में रत रहता है वह भिक्षु है। -दशवै. अ. 10, गा. 9 3. सज्झाय-सजनाणरयस्स ताइणो-स्वाध्याय और सद्ध्यान में रत रहने वाले छः काय रक्षक का कर्ममल शुद्ध हो जाता है / -दशवै, अ.८, गा. 62 4. सुत्तत्थं च वियाणइ जे स भिक्खू-जो सूत्र और अर्थ का विशेष ज्ञान करता है वह भिक्षु ---दशवै. अ. 10 गा. 15 5. गाणं एगग्गचित्तो य ठिओ य ठावई परं। सुयाणि य अहिज्जित्ता रओ सुय समाहिए। ज्ञान से चित्त एकाग्र होता है, ज्ञानी स्वयं धर्म में स्थिर होता है और अन्य को भी धर्म में स्थिर करता है अतः श्रुतों का अध्ययन करके श्रुत समाधि में लीन रहना चाहिए। -दशवं. अ. 9. उ. 4, गा. 3 6. उत्तरा. अ. 29 में स्वाध्याय से तथा वांचना आदि पांचों भेदों से होने वाले फल की पृच्छा के उत्तर में निर्जरा आदि अनेक लाभ बताए हैं। 7. उत्तरा. अ. 26 में साधु की दिनचर्या का वर्णन करते हुए अत्यधिक समय स्वाध्याय में ही व्यतीत करने का विधान है। उसी का विश्लेषण निशोथ चूर्णि में इस प्रकार किया है-- "दिवसस्स पढम चरिमासु, णिसीए य पढमचरिमासु य एयासु चउसु वि कालियसुयस्स गहणं गुणणं च करेज्ज / सेसासु त्ति-दिवसस्स बितीयाए उक्कालियसुयस्स गहणं करेति, अत्थं वा सुणेति, एसा चेव भयणा / ततियाए भिक्खं हिंडइ, अह ण हिडइ तो उक्कालियं पढइ, पुव्वगहियं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org