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________________ 412] [निशीषसूत्र यहाँ चैत्र सुदी तेरस को भगवान् महावीर का जन्म बताते हुए ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास का द्वितीय पक्ष चैत्र सुद्ध (सुदि) कहा है / इसी तरह अन्यत्र भी वर्णन है। अतः पूनम के बाद अगले महीने की एकम समझना ही शास्त्रसम्मत है / लौकिक प्रचलन में अमावस्या के लिए (30) तीस का अंक लिखा जाता है और इसे ही मास का अन्तिम दिन माना जाता है / किन्तु यह मान्यता शास्त्रसम्मत नहीं है / कई विद्वान् प्रस्तुत सूत्र (12) के आधार से भी इस लौकिक मान्यता का निर्देश मानते हैं किन्तु इस सूत्र से ऐसा अर्थ समझना भ्रमपूर्ण है। क्योंकि ठाणांग टीका व निशीथ चूर्णी में भी वैसा अर्थ नहीं किया गया है, तथा उक्त प्राचारांग अ. 15 के पाठ से भी ऐसा अर्थ करना आगम विरुद्ध है। अतः आषाढ, आसोज, कार्तिक और चैत्र की पूनम एवं श्रावण, कार्तिक, मार्गशीर्ष और वैशाख की एकम ये आठ दिन ही अस्वाध्याय के समझने चाहिये। यद्यपि इन्द्र महोत्सव के लिये आसोज को पूनम जैनागमों की व्याख्यानों में तथा जैनेत्तर शास्त्रों में भी कही गई है तथापि भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में कुछ भिन्न-भिन्न परम्पराएं भी कालान्तर से प्रचलित हो जाती हैं / यथा-लाट देश में श्रावण की पूनम को इन्द्र महोत्सव होना चूर्णिकार ने बताया है। ऐसे ही किसी कारण से भादवा की पूनम को भी महोत्सव का दिन मानकर अस्वाध्याय मानने की परम्परा प्रचलित है / जिससे कुल 10 दिन महोत्सव सम्बन्धी अस्वाध्याय के माने जाते हैं / किन्तु इसे केवल परम्परा ही समझना चाहिए क्योंकि इसके लिए मौलिक प्रमाण कुछ भी नहीं है। प्रस्तुत सूत्र में उपर्युक्त वर्णन के अनुसार आठ दिन ही कहे गये हैं उनमें स्वाध्याय करने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त आता है / स्वाध्यायकाल में स्वाध्याय नहीं करने का प्रायश्चित्त 13. जे भिक्खू चाउकालं उवाइणावेइ, उवाइणावेंतं वा साइज्जइ / 13. जो भिक्षु चारों स्वाध्यायकाल को स्वाध्याय किये बिना व्यतीत करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है / ) विवेचन–दिन की प्रथम व अन्तिम पौरुषी और रात्रि की प्रथम और अन्तिम पौरुषी, ये चार पौरुषियां कालिकश्रत को अपेक्षा से स्वाध्यायकाल हैं। इन चारों काल में स्वाध्याय नहीं करना और अन्य विकथा प्रमाद आदि में समय व्यतीत कर देना यह ज्ञान का अतिचार है, यथा-"काले न को सज्झाओ, सज्झाए न सज्झाइयं" | प्राव. अ. 4 इस अतिचार के सेवन करने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त आता है। तात्पर्य यह है कि भिक्षु को आवश्यक सेवाकार्य के सिवाय चारों ही पोरुषियों में स्वाध्याय करना आवश्यक होता है / स्वाध्याय न करने से होने वाली हानि 1. स्वाध्याय नहीं करने से पूर्वग्रहीत श्रुत विस्मृत हो जाता है / 2. नए श्रुत का ग्रहण एवं उसकी वृद्धि नहीं होती है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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