________________ 370] [निशीथसूत्र प्रायश्चित्त इन सूत्रों में कहा गया है / निषिद्ध स्थानों में परठने सम्बन्धी विवेचन उ. 3 तथा उ. 15 में देखें एवं सूत्र सम्बन्धी अन्य विवेचन उ. 13 में देखें। सोलहवें उद्देशक का सारांश सूत्र 1-3 गृहस्थयुक्त, जलयुक्त और अग्नियुक्त शय्या में ठहरना / 4-11 सचित्त इक्षु या इक्षुखण्ड खाना या चूसना। . 12 अरण्य में रहने वाले, वन (जंगल) में जाने वाले, अटवी की यात्रा करने वालों से आहार लेना। 13-14 अल्पचारित्रगुण वाले को विशेषचारित्रगुण सम्पन्न कहना और विशेषचारित्रगुण सम्पन्न को अल्प चारित्रगुण वाला कहना। विशेषचारित्रगुण वाले गच्छ से अल्पचारित्रगुण वाले गच्छ में जाना। 16-24 कदाग्रह युक्त भिक्षुओं के साथ आहार, वस्त्र, मकान, स्वाध्याय का लेन-देन करना। 25-26 सुखपूर्वक विचरने योग्य क्षेत्र होते हुए भी अनार्य क्षेत्रों में या विकट मार्गों में विहार करना / 27-32 जुगुप्सित कुल वालों से आहार वस्त्र शय्या ग्रहण करना तथा उनके वहाँ स्वाध्याय की वाचना लेना-देना / भूमि पर या संस्तारक (बिछौने) पर आहार रखना या खूटी छींका आदि पर आहार रखना। गृहस्थों के साथ बैठकर आहार करना या गृहस्थ देखें वहाँ आहार करना / प्राचार्य आदि के आसन पर पाँव लगाकर विनय किये बिना चले जाना। सूत्रोक्त संख्या या माप (परिमाण) से अधिक उपधि रखना। 40-50 विराधना वाले स्थानों पर मल-मूत्र परठना। इत्यादि दोष स्थानों का सेवन करने वाले को लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है। इस उद्देशक के 32 सूत्रों के विषय का कयन निम्न आगमों में है, यथासूत्र 1-3 स्त्री, अग्नि, पानीयुक्त मकान में ठहरने का निषेध। . -आचा. श्रु. 2, अ. 2, उ. 3 तथा बृह. उद्दे. 2 4-11 सचित्त इक्षु व इक्षुखण्ड ग्रहण का निषेध / -प्राचा. श्रु. 2, प्र. 7, उ. 2 चारित्र की वृद्धि न हो ऐसे गच्छ में जाने का निषेध / 25-26 योग्य क्षेत्र के होते हुए विकट क्षेत्र में विहार करने का निषेध / / -प्राचा. श्रु. 2, अ. 3, उ. 1 27-32 अजुगुप्सित अहित कुलों में भिक्षार्थ जाने का विधान / -प्राचा. श्रु. 2, अ. 1, उ. 2 38 प्राचार्यादि के आसन को पांव लगाकर विनय किए बिना चले जाना पाशातना है / -दशा. द.३ 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org