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________________ 364] [निशीयसूत्र ___ 'भिक्खू वा भिक्खूणी वा अभिकखेज्जा पायं एसित्तए, से जं पुण पायं जाणेज्जा, तं जहाअलाउपायं वा दारुपायं वा मट्टियापायं वा, तहप्पगारं पायं जे निग्गंथे तरुणे जाव थिरसंघयणे, से एगं पायं धारेज्जा णो बीयं / ' अर्थ-भिक्षु या भिक्षुणी पात्र की गवेषणा करना चाहे, तब वह ऐसा जाने कि यह तुम्बे का पात्र, लकड़ी का पात्र या मिट्टी का पात्र है। इनमें से जो निर्ग्रन्थ तरुण यावत् स्थिर संहनन वाला है वह एक ही प्रकार का पात्र ग्रहण करे दूसरे प्रकार का नहीं / यहाँ तीन जाति के पात्रों का कथन करके एक को ग्रहण करने का जो विधान किया है वह एक जाति की अपेक्षा से है, ऐसा अर्थ ही आगमसंगत है / यदि सम्बन्ध मिलाए बिना ही ऐसा समझ लिया जाए कि संख्या में एक ही पात्र भिक्षु को कल्पता है अनेक नहीं, तो यह अर्थ उपर्युक्त अनेक आगमपाठों से विरुद्ध है / क्योंकि गणधर गौतमस्वामी के एवं पारिहारिक तप करने वाले भिक्षु के तथा विशिष्ट प्रतिज्ञाधारी भिक्षुओं के भी अनेक पात्र होना ऊपर बताए गए आगमप्रमाणों से स्पष्ट है। यदि तरुण स्वस्थ साधु को एक ही पात्र कल्पता हो तो अनेक पात्र रखना कमजोरी और अपवादमार्ग सिद्ध होता है / ऐसी स्थिति में पात्र की ऊणोदरी करने का कोई प्रयोजन ही नहीं रहता। जबकि भगवती आदि सूत्रों में ऊणोदरीतप का पाठ स्पष्ट मिलता है तथा उसको व्याख्या भी मिलती है। अतः आचारांग के इस पाठ में एक जाति के पात्र ही तरुण साधु को कल्पते हैं, यही अर्थ करना निराबाध है। इस प्रकार से भिक्षु के अनेक पात्र रखने का निर्णय तो हो जाता है, किन्तु कितने पात्र रखना यह निर्णय नहीं हो पाता है / तीन पटल के पाठ से जघन्य 4 पात्र रखना तो स्पष्ट है, इसके अतिरिक्त मात्रक तीन प्रकार के कहे गए हैं-१. उच्चारमात्रक, 2. प्रस्रवणमात्रक, 3. खेलमात्रक / इनमें प्रस्रवणमात्रक तो सभी को आवश्यक होता है, किन्तु खेलमात्रक और उच्चार मात्रक विशेष कारण से किसी-किसी को आवश्यक होता है। आचारांग के इस पाठ से या अन्य किसी कारण से भाष्य-टीकाकारों ने पात्र संख्या की चर्चा करते हए एक पात्र व एक मात्रक रखने को कल्पनीय सिद्ध किया है। जिसमें मात्रक का विधान आर्यरक्षित के द्वारा किया गया बताया है। अन्यत्र भी इस विषयक विस्तृत चर्चा की गई है। जिसका उपर्युक्त आगम प्रमाणों के सामने कुछ भी महत्त्व नहीं रहता है तथा एक या दो पात्र रखने की कोई परम्परा भी प्रचलित नहीं है / गोच्छग-संयम लेते समय ग्रहण की जाने वाली उपधि के वर्णन में पात्र से भिन्न “गोच्छग" का कथन है। उत्तरा. अ. 26 में सूर्योदय होने पर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना के बाद "गोच्छग" के प्रतिलेखन करने का विधान है। उसके बाद वस्त्र-प्रतिलेखन का कथन है। तदनन्तर पौन पोरिसी पाने पर पात्रप्रतिलेखन का विधान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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