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________________ सोलहवां उद्देशक] [347 विभिन्न प्रकार की साधना करने वाले इन साधकों के विषय में भिक्षु को यथार्थ जानकारी प्राप्त किए बिना केवल राग-द्वेषवश या अज्ञानवश अयथार्थ कथन नहीं करना चाहिए। अर्थात् शुद्ध आचरण वाले भिक्षु को शिथिल आचरण वाला और शिथिल आचरण वाले भिक्षु को शुद्ध आचरण वाला नहीं कहना चाहिए / विपरीत कथन राग देष से या अज्ञान से ही किया जाता है। ऐसा करना भिक्ष के लिये उचित नहीं है / इसी कारण इन सूत्रों में प्रायश्चित्त कहा गया है। असत्य कथन नहीं करना, इतना ही नहीं, सत्य वचन भी अप्रिय या अहितकर हो तो भिक्षु को बोलना उचित नहीं है। तात्पर्य यह है कि शुद्धाचारी को शिथिलाचारी और शिथिलाचारी को शुद्धाचारी कहना, विपरीत कथन होने से प्रस्तुत सूत्रद्वय में इसका प्रायश्चित्त कहा गया है। शिथिलाचारी को शिथिलाचारी कहना परुष वचन होने से १५वें उद्देशक के दूसरे सूत्र के अनुसार प्रायश्चित्त आता है। / अत: भिक्षु को अयथार्थ कथन भी नहीं करना और यथार्थ कथन भी किसी को अप्रिय एवं अहितकर हो तो नहीं करना चाहिए। सूत्र में संयम गुणों की अपेक्षा से यह कथन है, अन्य ज्ञानादि सभी गुणों के विषयों में अयथार्थ कथन का प्रायश्चित्त इन सूत्रों से ही समझ लेना चाहिए। सांभोगिक व्यवहार के लिये गणसंक्रमण का प्रायश्चित्त 15. जे भिक्खू वुसिराइयगणाओ अवुसिराइयगणं संकमइ, संकमंतं वा साइज्जइ। 15. जो भिक्षु विशेष चारित्र गुण सम्पन्न गण से अल्प चारित्र गुण वाले गण में संक्रमण करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन-गणनायक जैसे चारित्रगुण से सम्पन्न होता है, उस गण के साधु-साध्वी भी प्रायः वैसे ही चारित्रगुण से सम्पन्न होते हैं / अतः गणनायक के अनुसार गण भी शुद्धाचार वाला या शिथिलाचार वाला कहा जाता है। किसी भिक्षु को स्वगच्छ में किसी विशेष कारण से प्रात्मशान्ति या सन्तुष्टि न हो और वह गणपरिवर्तन करना चाहे तो कर सकता है / ठाणांग सूत्र के पांचवें स्थान में गणपरिवर्तन के पांच कारण बताये हैं। बृहत्कल्प सूत्र उ. 4 में अन्य गण में जाने की प्रक्रिया का विधान इस प्रकार किया हैप्राचार्यादि पदवीधर यदि अन्य गण में जाना चाहें तो अपने पद पर गण की सम्मति से प्राचार्य पदयोग्य किसी अन्य भिक्षु को प्रस्थापित करके और गण की आज्ञा लेकर के जाएँ / सामान्य साधु भी प्राचार्यादि की आज्ञा लेकर ही जाए। बिना आज्ञा लिये कोई भी अन्य गण में नहीं जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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