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________________ 346] [निशोषसूत्र प्रटव इनसे आहार लेने पर जंगल में अन्य कोई साधन न होने के कारण वे वनस्पति की विराधना करेंगे या पशु पक्षी की हिंसा करेंगे अथवा क्षुधा से पीड़ित होंगे इत्यादि दोषों की सम्भावना रहती है / अत: इनसे आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए। सूत्र में तीन समान शब्दों का प्रयोग है, किन्तु उनके अर्थ में कुछ-कुछ भिन्नता है अरण्य-नगर ग्राम आदि बस्ती से अत्यन्त दूर के जंगल / वन-ग्राम नगर आदि के समीप के वन / अटवी-चोर आदि के भय से युक्त लम्बा जंगल, जिसे पार करने में अनेक दिन लगें एवं बीच में कोई बस्ती न हो। अटवी से लौट रहे व्यक्तियों से भी आहार ग्रहण करने पर यदि 1-2 दिन से अटवी पार होने की सम्भावना हो तो भी चोर आदि के कारण से अथवा मार्ग भूल जाने से कभी अधिक समय भी लग सकता है / अतः अटवी-यात्रा करने वालों का आहार सर्वथा अग्राह्य समझना चाहिए। सूत्र में अटवी के सम्बन्ध में दो शब्द हैं, उन दोनों से अटवी में रहे हए व्यक्ति ही समझना चाहिए, किन्तु अटवी में जाने की तैयारी में हों या अटवी पार कर ग्रामादि में पहुँच गए हों तो उनका प्रहार ग्रहण करने का प्रायश्चित्त नहीं समझना चाहिए। कुछ प्रतियों में इस एक सूत्र के स्थान पर दो सूत्र मिलते हैं। इसमें लिपि-प्रमाद ही प्रमुख कारण है। वसुरानिक अवसुरात्निक कथन का प्रायश्चित्त 13. जे भिक्खू बसुराइयं अवसुराइयं वयइ वयंत वा साइज्जइ / 14. जे भिक्खू अवसुराइयं वसुराइयं वयइ वयंतं वा साइज्जइ / 13. जो भिक्षु विशेष चारित्र गुण सम्पन्न को अल्प चारित्र गुण वाला कहता है या कहने वाले का अनुमोदन करता है / 14. जो भिक्षु अल्प चारित्र गुण वाले को विशेष चारित्र गुण सम्पन्न कहता है या कहने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन--संयम धारण करने के बाद कई साधक जीवनपर्यन्त शुद्ध आराधना में ही लगे रहते हैं तथा अनेक साधक शारीरिक क्षमता कम हो जाने से या विचारधारा के परिवर्तन से संयम में अल्प पुरुषार्थी हो जाते हैं तो कई संयम-मर्यादा का अतिक्रमण ही करने लग जाते हैं और उनकी शुद्धि भी नहीं करते हैं / इस प्रकार साधकों की भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ होती हैं। संयम की शुद्ध पाराधना करने वाले भिक्षु संयम रूपी रत्न के धन से धनवान होते हैं / अतः उनको इस सूत्र में “वसुरात्निक" शब्द से सूचित किया गया है / जो संयममर्यादा का अतिक्रम करके उसकी शुद्धि नहीं करते हैं, वे संयम रूप रत्नी के धन से धनवान् नहीं रहते हैं / अतः सूत्र में उनको "अवसुरानिक" शब्द से सूचित किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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