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________________ बारहवां उद्देशक] [257 विवेचन-कलमायंति स्तोक प्रमाणं। -णि / पृथ्वीकाय आदि ये पांचों एकेन्द्रिय जीव हैं। इनके अस्तित्व का इनकी विराधना के प्रकारों का और विराधना के कारणों का वर्णन आचा. श्रु. 1, अ. 1 में किया गया है। दशवै. अ. 4 में इनकी विराधना न करने की प्रतिज्ञा करने का कथन है / दशवै. अ. 6 में भी इस विषय में मुनि की प्रतिज्ञा का स्वरूप कहा गया है। भगवतीसूत्र, पन्नवणासूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र इत्यादि प्रागमों में पृथ्वीकाय आदि के भेदप्रभेद बताये गये हैं। निशीथ भाष्य पीठिका गाथा. 145 से 257 तक पृथ्वीकाय आदि पाँच स्थावरों की विराधना भिक्षु द्वारा कितने प्रकार से हो सकती है और उनके प्रायश्चित्त के कितने विकल्प होते हैं इत्यादि विषयों का विस्तृत विवेचन किया गया है। अतः विस्तृत जानकारी के लिये उपयुक्त स्थलों का अध्ययन करना चाहिये / कुछ विराधनास्थल इस प्रकार हैंपृथ्वीकाय की विराधना के स्थान 1. गोचरी में-सचित्तरज-युक्त हाथ आदि तथा 1. काली-लाल मिट्टी, 2. ऊष-खार, 3. हरताल, 4. हिंगुलक, 5. मेन्सिल, 6. अंजन, 7. नमक, 8. गेरू, 9. पीली मिट्टी (मेट), 10. खड्डी [ खडिया ], 11. फिटकरी, इन ग्यारह के चूर्णों [पिष्टों] से लिप्त हाथ, कुड़छी या बर्तन से भिक्षा ग्रहण करने पर पृथ्वीकाय की विराधना हो जाती है। अथवा इनका संघट्टन आदि करते हुए दाता भिक्षा देबे तो इनकी विराधना हो जाती है। 2. मार्ग में-१. काली, लाल, पीली सचित्त मिट्टी, मुरड़, रेत, बजरी [दाणा], 2. पत्थरों के नये टुकड़े [गिट्टी प्रादि], 3. नमक, 4. ऊष-खार, 5. पत्थर के कोयले आदि से युक्त मार्ग हो या ये पदार्थ मार्ग में बिखरे हुए हों तो इन पर चलने से पृथ्वीकाय की विराधना हो जाती है। ___ तत्काल हल चलाई हुई भूमि, मधुर फल वाले वृक्षों के नीचे की विस्तृत भूमि और वर्षा से गीली बनी गमनागमन रहित स्थान की भूमि भी मिश्र होती है। नदी, तालाब आदि के किनारे या खड्डों में पानी के सूखने पर जो मिट्टी पपड़ी बन जाती है, वह सचित्त हो जाती है / इन पर चलने बैठने आदि से पृथ्वीकाय की विराधना हो जाती है। सामान्यतया ऊपर की चार अंगुल भूमि गमनागमन, सर्दी, गर्मी आदि से अचित्त हो जाती है और उसके नीचे क्रमशः कहीं मिश्र या कहीं सचित्त होती है / मार्ग में जहाँ सचित्त या मिश्र पृथ्वी हो वहाँ मनुष्य आदि के गमनागमन से एक या दो-तीन प्रहर में अचित्त हो जाती है। - कोमल पृथ्वी अच्छी तरह पिस जाने के बाद पूर्ण अचित्त हो जाती है और कठोर पृथ्वी वर्ण परिवर्तन हो जाने पर केवल ऊपर से अचित्त हो जाती है, क्योंकि उसमें कठोरता के कारण अन्दर के जीवों की पांव के स्पर्श प्रादि से विराधना नहीं होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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