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________________ 254) [निशीथसूत्र 11. कई संघातिम जीवों के कलेवर अक्षरों पर चिपक जाते हैं अथवा उनका खून अक्षरों पर लग जाता है। जीववध के चार दृष्टान्त-१. चतुरंगिणी सेना के बीच से हिरण, 2. घी-दूध आदि में से संपातिम जीव, 3. तेल को घाणी आदि में से तिल या त्रस जीव तथा 4. जाल में फंसा हुआ मत्स्य इत्यादि अनेक जीव कदाचित् छूट भी सकते हैं, बच भी सकते हैं, किन्तु पुस्तक के बीच में पा जाने वाला प्राणी नहीं बच सकता / इसलिये भाष्य में कहा है जत्तिय मेत्ता वारा, मुचति, बंधति य जत्तिया वारा / जत्ति अक्खराणि लिहति व, तत्ति लहुगा च आवज्जे // -भा. गा. 4008 इन पुस्तकों को जितनी बार खोले, बंद करे या जितने अक्षर लिखे उतनी बार लघचातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है और जो प्राणी मर जाय उसका प्रायश्चित्त भी अलग आता है। 2. तृण-पंचक 1. कुथुए आदि छोटे जीवों की विराधना होती है। 2. जहरीले जीव-जन्तु से आत्मविराधना होती है। 3. अतः जितनी बार करवट बदले अथवा आकुचन-प्रसारण करे, उतने लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त आते हैं। __ शेष तीनों पंचक में प्रतिलेखन शुद्ध न होने से या जीवविराधना होने से संयम विराधना होती है / अतः झुषिर दोष के कारण ये उपकरण ग्रहण करने योग्य नहीं हैं। किन्तु आपवादिक स्थिति में यदि ये उपकरण ग्रहण किये जाएं तो उसका प्रायश्चित्त लेना चाहिये और इन्हें अकल्पनीय उपकरण या प्रोपग्रहिक उपकरण समझना चाहिये / बृहत्कल्पसूत्र उद्देशक-३ में साधु के लिये सरोम-चर्म का मर्यादा युक्त विधान है तथा तृणपंचक भी ग्रहण करने का उत्तराध्ययन अ. 23 आदि अनेक आगमों में वर्णन है / इन वर्णनों से यह फलित होता है कि कभी परिस्थितिवश ये झुषिर उपकरण भी जीवविराधना न हो, उस विधि से एवं मर्यादा से रखे जा सकते हैं / किन्तु जब जीवों की विराधना सम्भव हो या आवश्यकता न रहे तब उन्हें छोड़ देना चाहिये। शारीरिक परिस्थिति से अावश्यक होने पर चर्म-पंचक और तृण-पंचक या वस्त्र-पंचक ग्रहण करके उपयोग में लिये जा सकते हैं, उसी प्रकार श्रुतविस्मृति आदि कारणों से, अध्ययन में सहयोगी होने से पुस्तक आदि साधन भी उक्त विवेक के साथ रखे जा सकते हैं। प्राने पास रखी जाने वाली औधिक और प्रौपग्रहिक उपधि का उभय काल प्रतिलेखन, प्रमार्जन करना भिक्षु का आवश्यक प्राचार है। तदनुसार यदि पुस्तकों को अपनी उपधि रूप में रखना हो तो उनका भी उभय काल यथाविधि प्रतिलेखन, प्रमार्जन करना चाहिये / ऐसा करने पर भाष्योक्त दोषों की सम्भावना भी नहीं रहती है और ज्ञान-पाराधना में भी सुविधा रहती है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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