SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 353
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बारहवां उद्देशक |253 4. पूरित स्थूल सन-सूत्रमय वस्त्र-गलीचा आदि / 5. विरलिका-द्विसरा सूत्रमय वस्त्र। 4. अप्रतिलेख्य वस्त्र-पंचक-- 1. उपधान-हंस रोम आदि से भरा सिरहाना, तकिया / 2. तूली-संस्कारित कपास, अर्कतूल आदि से भरा सिरहाना / 3. आलिंगनिका-पुरुष प्रमाण लम्बा व गोल गद्दा जिस पर करवट से सोते समय पांव हाथ घुटने कुहनी आदि रखे जा सके। 4. गंडोपधान-गलमसूरिका---जो करवट से सोते समय मुह के नीचे रखा जाय / 5. मसूरक--मसूर की दाल जैसे आकार के गोल व छोटे गद्दे जो कुर्सी, मुड्ढे आदि पर रखे जाते हैं, जिन पर एक व्यक्ति बैठ सकता है। ये पांचों गद्दे या तकिये [प्रोसीके ] आदि अप्रतिलेख्य वस्त्र हैं, क्योंकि ये रूई आदि भर कर सिले हुए होते हैं। 5. चर्म-पंचक 1. गो-चर्म, 2. महिष-चर्म, 3. अजा [बकरी]-चर्म, 4. एडक-[भेड का] चर्म, 5, आरण्यक = अन्य मृग आदि वन्यपशुचर्म / ये पांचों प्रकार के रोम युक्त चर्म अग्राह्य हैं / इनके ग्रहण एवं उपभोग का प्रायश्चित्त प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है। शेष पुस्तक-पंचक आदि के ग्रहण का प्रायश्चित्त भाष्य, चूर्णि में लघचौमासी आदि बताया है। भाष्यकार ने पुस्तक-पंचक आदि रखने के निम्न दोष बताये हैं--- 1. पुस्तक-पंचक 1. विहार में भार अधिक होता है / 2. कंधों पर घाव हो सकते हैं। 3. पोल रहने से प्रतिलेखन अच्छी तरह नहीं होता है / 4. कुथुवे, फूलन पनक] की उत्पत्ति हो सकती है / 5. धन की आशा से चोर चुरा सकते हैं / 6. तीर्थकर भगवान् ने इनके उपयोग करने की आज्ञा नहीं दी है अर्थात प्रश्नव्याकरण आदि आगमों में कहे गये भिक्षु के उपकरणों में इनका नाम नहीं है। 7. स्थानांतरित करने में परिमंथ होता है। 8. सूत्र लिखा हुआ है ही, ऐसा सोच कर साधु साध्वी प्रमादवश पुनरावृत्ति या कंठस्थ नहीं करें तो उससे श्रुत-अर्थ विनष्ट होता है / 9. पुस्तक सम्बन्धी परिकर्भ में सूत्रार्थ के स्वाध्याय की हानि होती है। 10. अक्षर लिखने में कुथुवे अादि प्राणियों का वध हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy