________________ सूत्रागम की दृष्टि से निशीथ के सूत्र रचयिता गणधर हैं। उस सूत्र की प्रथम उपलब्धि गणधर के शिष्यों को हई और पारम्परिक उपलब्धि गणधर के प्रशिष्यों को हुई।' इस प्रकार आचार्य जिनदासगणि महत्तर के अनुसार निशीथ के कर्ता अर्थ की दृष्टि से तीर्थकर और सूत्र की दृष्टि से गणधर सिद्ध होते हैं। फिर महज ही यह प्रश्न उबुद्ध होता है कि भद्रबाहु को पञ्चकल्पणिकार ने निशीथ का कर्ता किस प्रकार माना / प्रस्तुत प्रश्न पर जब हम गहराई से चिन्तन करते हैं तो हमें दशाश्रतस्कन्धनियुक्ति में इसका समाधान मिलता है। वहां पर नियुक्तिकार ने दशाश्रुतस्कन्ध के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए लिखा है कि प्रस्तुत दशाएँ अंगप्रविष्ट आगमों में प्राप्त दशाओं से लघु हैं। शिष्यों के अनुग्रह हेतु इन लघु दशानों का निर्यहण स्थविरों ने किया। पञ्चकल्पभाष्य चणि के अनुसार वे स्थविर भद्रबाहु हैं। संक्षेप में यदि हम कहना चाहें तो यों कह सकते हैं कि अर्थ के प्ररूपक तीर्थंकर हैं। सूत्र के रचयिता गणधर हैं और वर्तमान संक्षिप्त रूप के निर्माता भद्रबाहु स्वामी हैं। निशीथसूत्र के अन्त में प्रशस्ति में तीन गाथाएं प्राप्त होती हैं। जिनके प्राधार पर विज्ञों में एक धारणा यह प्रचलित है कि निशीथ के कर्ता विशाखाचार्य हैं / श्वेताम्बर परम्परा की जितनी भी पट्टावलियाँ उपलब्ध हैं उनमें कहीं पर भी विशाखाचार्य का उल्लेख नहीं है। दिगम्बर परम्परा की पट्टावली में भद्रबाहु के पश्चात विशाखाचार्य का नाम आया है। विशाखाचार्य दस पूर्वो के ज्ञाता थे। वीर निर्वाण के एक सौ बासठ वर्ष तक भद्रबाहु स्वामी थे। उसके पश्चात ही विशाखाचार्य का युग प्रारम्भ हुआ। प्रशस्तिगाथाओं में विशाखाचार्य के लिए--'तस्स लिहियं निसीहं' यहां पर लिखित का अर्थ रचयिता और लेखक ये दोनों अर्थ निकाल सकते हैं। पद्रावलियों में अन्य किसी विशाखाचार्य का उल्लेख नहीं है। जब प्रशस्ति में निशीथ के लेखक के रूप में विशाखाचार्य का नाम स्पष्ट रूप से उल्लिखित था, फिर चर्णिकार ने निशीथ को गणधरकृत क्यों लिखा और प्राचार्य शीलांक ने निशीथ के रचयिता स्थविर को चतुर्दश पूर्वविद् क्यों लिखा ? इसके उत्तर में स्पष्ट रूप से कुछ भी कहना सम्भव नहीं / एक प्रश्न यह भी समुत्पन्न होता है कि नियुक्तिकार, भाष्यकार और चूर्णिकार के समक्ष ये प्रशस्ति गाथाएँ थी या नहीं ? यदि यह माना जाय कि निशीथ के लेखक विशाखाचार्य थे तो दूसरा प्रश्न यह है कि क्या प्रशस्ति की गाथाएं विशाखाचार्य ने बनाई ? गाथाओं के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि स्वयं विशाखाचार्य अपना परिचय इस प्रकार नहीं दे सकते, वे अपने गुणों का उत्कीतन कैसे कर सकते हैं। यदि विशाखाचार्य ने ये गाथाएँ मूल ग्रन्थ के अन्त में दी होती तो नियुक्तिकार को विशाखाचार्य का उल्लेख करने में क्या आपत्ति हो सकती थी ? वे फिर स्थविर शब्द से क्यों उल्लेख करते ? अतः यह स्पष्ट है कि नियुक्तिकार के समक्ष प्रशस्ति की ये तीन 1. "निसोहचुलझयणस्स तित्थगराणं अस्थस्स अत्तागमे, गणहराणं सुत्तस्स अत्तागमे, गणाणं अत्थस्स प्रणं तरायमे। गणहरसिस्साणं सुत्तस्स अणंतरागमे, अत्थस्स परंपरागमे / तेण परं सेसाणं सुत्तस्सवि अत्थस्सवि णो अत्तागमे, णो अणन्तरागमे, परंपरागमे / " -निशीथणि भाग 15. 4 दंसणचरितजुओ जुत्तो गुत्तीसु सज्जणहिए / नामेण विसाहगणी महत्तरओ मुणाण मंजूसा // कित्तीकति पिणाद्धो जसपत्तो पडही तिसागर निरुद्धो। पुणरुत्तं भमइ सहि ससिव्व गगणं गुणं तस्स / / तस्स लिहियं निसीहं धम्मधुराधरणपवर पुज्जस्स / प्रारोग्गं धारणिज्ज सिस्सपसिस्सोव भोज्जं च / / -निशीथसूत्र भाग 4 पृ. 395 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org